एक नगर, चार शायर, तरही ग़ज़लें - 13-04-2025
मुस्तफ़इलुन फ़उल 2212 2212 2212 १२ जो की मूल सालिम बहर से थोड़ा अलग है. यह वही बहर है जिसमें बशीर बद्र और निदा फ़ाज़ली ने कई प्रयोग किए हैंI
प्रस्तुत हैं चार समकालीन तरही गज़लें -
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ग़ज़ल ०१ :: - पद्मनाभ 'गौतम' ✍️
हम इत्रो-अश्को-आब थे, पेट्रोल हो गए
इंसान दौरे बेहिसी में ट्रोल हो गए
इक्कीसवीं सदी का सफ़र, यूँ हुए पामाल
सपनों के रास्ते पे तारकोल हो गए
सोचा ये किस ने, होगा यूँ फ़ितूरे-मोबाइल
बहती नदी थे लोग फेवीकोल हो गए
ये दौर नया इतना भी ख़ुश-हाल नहीं, बस
फैले थे नंगे हाथ जो, कश्कोल हो गये
दौड़ाया हमें ज़िंदगी ने इस कदर यहाँ
भाषा के अपने शौक थे, भूगोल हो गए
ये ख़ुदकुशी है, खोज नहीं है ये एआई
इन्सां के ख़ुद के इल्म ही बे-मोल हो गए
कहता ग़ज़ल हूँ छोड़ नज़ाकत-ओ-रवायत
आलिम हँसे हैं, बोल औल -फ़ौल हो गए
दौरे-बेहिसी - संवेदनाविहीनता का दौर, ट्रोल - मोटी चमड़ी वाले खूँखार भीमकाय जीव।
पामाल – पददलित, कशकोल - फ़कीर का कमंडल, नज़ाकत-ओ-रवायत - कोमलता और परम्परा, औल -फ़ौल - नॉनसेंस, बकवास
पद्मनाभ 'गौतम'
ग़ज़ल -०२ :: - ताहिर 'आज़मी' ✍️
हम इश्क़ के बाज़ार में माखौल हो गए
ख़ुदग़र्ज़ बेवफ़ा सभी अनमोल हो गए
लुकमा हराम रास तो आया उन्हें मगर
जुग्राफिया से जिस्म के बेडौल हो गए
वो साज़े अजल छेड़ने की ज़िद पे है अड़े
पुर सोज़ मुआशरे के ये माहौल हो गए
तेरे लबों के अक्स का लहजे पे है असर
शीरीं ग़ज़ल के कितने मेरे बोल हो गए
कल शहर में तो नगम-एअम्नो-अमान था
मंज़र यहां के किस लिए पुरहौल हो गए
इल्ज़ाम मेरे सर का जो आयद हुआ उन्हें
मासूमियत की इक सुफैद खोल हो गए
ख़ैरात-ए-वस्ल के लिए ताहिर मेरा गुरेज़
ताउम्र हम तो बे-कफ़-ओ-कशकोल हो गए
ताहिर 'आज़मी'
ग़ज़ल -03 :: - रमेश गुप्ता✍️
बहती नदी बादे सबा कल्लोल हो गये
तेरी वफ़ा में हम सनम अनमोल हो गये
आती नहीं नींदें मुझे हालात देखकर
घर में कई चंगेज़-औ-मंगोल हो गये
हैरत में हैं वो मेरी तबीयत को देखकर
जो कह रहे थे रोज़ हम बे-तोल हो गये
हैवानियत हद पार अब बेटी कहाँ रहे
क़ानून में भी सैकड़ों अब झोल हो गये
पैदा किया पाला जिन्हें घर द्वार बेचके
वे कह रहे माँ बाप को बकलोल हो गये
कल्लोल - तरंग, लहर
रमेश गुप्ता
ग़ज़ल -04 :: - विजय सोनी (शान )....✍️
दौरे सफ़र मे अपने हम मशगोल हो गए
कुछ यूँ हुआ की ज़िन्दगी मे झोल हो गए
कहने को हम नवाब थे किस्मत तो देखिए
हाथों मे यार अपने अब कश्कोल हो गए
रहते थे जो अदब में उन लौंडो को देखिए
दीवाली के तमंचे भी पिस्तौल हो गए
दौरे-सफ़र निज़ाम का हासिल न कर सके
बस आजिज़ी से लोग कुछ बे-मोल हो गए
हमने कफ़स को ढकने की ज़ब ज़ब भी बात की
अपने बदन के कपड़े ही मस्कोल हो गए
नफ़रत की बात हमने फिर यारों कभी न की
हमसे मिले जो लोग वो हमसोल हो गए
गुरबत मे जीने का मज़ा मिलता रहा हमें
मिलते रहे जो ख़ार वो मखमोल हो गए
मशगोल -- व्यस्त
कश्कोल --दान पात्र
आजिज़ी -- विनती
मस्कोल -- कफ़न जैसा कपड़ा
हमसोल -- हमसफ़र
मखमोल -- मखमली बिस्तर
विजय सोनी (शान )