मंगलवार, 30 जुलाई 2013

"अवगुंठन की ओट से सात बहने" मे संग्रहित कविताएँ ...

उत्तर पूर्व मे रहते हुए रचना कर्म करने वाले 33 कवियों की कविताओं के संकलन "अवगुंठन की ओट से सात बहने" (प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर )मे संग्रहित कुछ कविताएँ ...
 
 

1. जगत रास

मुँह अंधेरे उठती है वह
और
उसके पैरों की आहट से
हड़बड़ाकर कर जागा
कलगीदार मुर्गा
बाँग दे कर
बन जाता है
सूरज का झंडाबरदार
 
तेज तेज डग भरकर
आता सूरज
हार जाता है हर रोज
उससे पहले
नहा लेने की होड़़ में
 
झाड़ू की गुदगुदी से
कुनमुनाकर जाग उठी
अलसाई धरती को
फँसाकर अपनी
उँगलियों में ,
घुमा देती है वह
एक लट्टू की तरह,
 
और इस तरह
हो जाता है शुरू
आलंग की
छोटी सी दुनिया का
एक और दिन
 
चल पड़ती है वह
इसके बाद
खींचने खेतों के कान,
और रंगने
लोअर मार्केट को
लाही पत्ते की
हरियाली से,
 
मापता है समय
उसके चलने से
अपनी गति,
और उसके रूकने पर
सुस्ताती हैं
घड़ी की सुइयाँ भी
 
इस बीच
बाट जोह रहे होते हैं
उसकी वापसी की-
एक उदास चांगघर,
स्कूल से लौटे बच्चे
और पत्तेबाज़ों की महफिल

दिन ढले घर पहुँचकर
गिराती है वह
खिड़कियों के परदे,
और तब उसकी
लालटेन जलाती
दियासलाई के
इशारे पर
आँख खोलता है
साँझ का पहला तारा

थक कर उसके
आँख मूँद लेने पर
गहरा जाती है रात,
और पास बहती
योम्बू की गति
हो जाती है
कुछ और मंथर

आखिरकार
वह सो जाती है,
इस बात से
कतई बेपरवाह
कि उसके ही जादू से
चला है यह
रात-दिन का
जगत रास।
 

2. बुन्टी


 कौन सा शब्द होगा
सबसे ज्यादा उपयुक्त
उनके लिए-
निपाक, बुंटी या
या काँची
या फिर कुछ और,
सब कुछ है जायज
उन जुड़वाँ बहनों के लिए
क्योंकि उन्होंने
जाना ही नहीं
कोई शब्द
जो बन पाता
उनके लिए
किलककर
निहारने का कारण

अगर वे कुछ जानती हैं
अच्छी तरह से
तो बस लोगों की
निगाहों का मतलब,
क्योंकि उन निगाहों में ही
देखे हैं उन्होंने
अपने होने के कई मानी

होश संभालने पर
लोगों से सुना
कि वे हैं कागज़ पर
अँगूठा लगवाकर
गोद ली गई बच्चियाँ,
पर बिना किसी के बताए
सीख लिया उन्होंने
कि वे गोद ली बेटियाँ नहीं
बल्कि एक सौदा हैं,
एक कीमत,
जिसे किसी बीमारी को
ठीक करने
या भूख मिटाने के बदले
चुकाना है उन्हें उम्र भर,

तरूणाई आते आते
जान लिया उन्होंने
कि बुन्टियों के लिए
नहीं होती
उनके हिस्से की हँसी,
मेन्चुका से लेकर
लिकाबाली तक
दुनिया के जितने विस्तार
की गवाही दे सकती हैं
उनकी आखें,
उसमें कहीं भी नहीं है
उनके हिस्से की ज़मीन,
और न ही उनके हिस्से की
उड़ान,
तब एक दिन
सीख लिया उन्होंने
ओढ़ना
एक खोखली सूखी हँसी
अपने काँतिहीन चेहरों पर,
करती हैं जिसे वे
हँसने के लिए
उकसाने पर इस्तेमाल

उनकी आँखों में
नहीं है कोई प्रतीक्षा,
जैसे कि उनके लिए
दुनिया के सारे रास्ते
ले जाते हैं लोगों को
उनसे दूर,
उनके माँ-बाप की तरह

कुछ भी पुकार लो उन्हें,
निपाक, बुंटी,
ए लड़की या काँची
या माला और सीता
-उनके नाम,
वे पूछ लेंगी
प्रश्नवाचक निगाहों से
तुम्हारा मतलब,
चेहरे पर
कोई रंग लाए बगैर

आखिरी बार देखा था
दोनों को अकेले
पकड़े एक दूसरे का हाथ और
खिलखिलाकर हँसते हुए
किसी बात पर,

लगा कि शायद
यह स्पर्श ही है
उनकी जीवनी शक्ति
का स्रोत,
काट रही हैं ये अभागिनें
जिसके सहारे अपना दासत्व

और यह भी
कि कभी कभी
बुंटियाँ भी हँसती है
खिलखिलाकर
लड़कियों की तरह
अकेले में
 

3. गेतर इंगो के लिए

 
वेस्ट सियांग की
सबसे प्यारी
मुस्कान थी
गेतर इंगो
एक मुस्कान,
जो रहती थी
किसी का भी
दर्द सहलाने को
आठों पहर तैयार
 
एक पुल थी
गेतर इंगो
जिसने बांध दिया था
पहाड़ और मैदान को,
एक ही मंदिर में
शिव, दुर्गा और
दोनी-पोलो के
भजन गाकर
 
एक सदाप्रवाहिनी
ऊर्जा थी वह,
हर मुसीबत के सामने
डटकर खड़ी,
चाहे ले जाना हो
शिलांग के
आदिवासी मेले में
ट्रक भर कर
सामान,
या अनवासना हो
हैसियत से
चैगुना काम,
वह जानती थी कि
आखिरकार
चल ही पड़ेंगे
उसके काफिले में
उसे कोसते लोग
 
उसका बस चलता
तो उसकी वह छोटी सी
सरकारी पगार
उठा लेती
सारी दुनिया का खर्च,
जो आते ही
हो जाती थी खर्च,
किसी की दवा मे,
किसी की फीस में,
किसी के खाने में,
किसी के कपड़े में
और न जाने कहाँ कहाँ,
फिर भर महीना फक्कड़ई
और उसके ऊपर मस्ती
 
एक फकीर थी
गेतर इंगो
जो पहुँचा आती
घर के सारे कपड़े, कम्बल
और कुर्सियाँ तक,
किसी के चांगघर में लगी
आग के बाद
और कभी
किसी के मरने पर
उलीच आती
बैंक की सारी नगदी
 
कभी समझाने पर
उठाकर दोनों हाथ
आसमान की ओर
देती थी
बस एक ही जवाब
“सब वो दाढ़ी
वाला देख रहा है”
 
एक चिडि़या थी
गेतर इंगो
जो कभी फुदकती थी
बैंगलोर,
तो कभी इटानगर
कभी गोहाटी,
तो कभी शिलांग,
इस डाल से उस डाल
 
एक दिन
उड़ गई चिडि़या अचानक,
हो गई मुस्कान
हवा में विलीन,
एक ऊर्जा शून्य में प्रवाहित,
चली गई वह
अपने दाढ़ी वाले के पास
छोड़ कर हमारे मन में
एक मीठी सी याद,
और अपनी फकीरी
 
एक दिन सबसे जीतते जीतते
हार गई वह अपने ब्रेन ट्यूमर से
 
अलविदा गेतर इंगो,
मगर तुम आज भी
गा रही हो मुस्कुराते हुए
मेरे कानों में
अपना प्रिय गीत -
”हमें रास्तों की
ज़रूरत नहीं है
हमें तेरे पैरों के
निशां मिल गए हैं”
 
 

4. शहर की कविता

 
कांधे पर रखकर
कविताओं का खाली थैला
निकल पड़ा हूँ मैं
नजरें चुराता
उस पहाड़ से,
जो ताकता है मुझे
अपने ठीहे से दिनरात
और जिसे मैं
अपनी बालकनी से,
जो भरता है
मेरा खालीपन
उतरकर मेरे अन्दर,
तब भी, जब कि
सो चुकी होती है सारी दुनिया
मेरे रतजगे से बेपरवाह,
और जब रात के चैथे पहर
खोजता हूँ मैं उसे
अंधेरे में आँखें फैलाते हुए
 
गए बुध की शाम
घिर आया था एक बादल
उसके इर्द-गिर्द,
जैसे पहन रखी हो उसने
एक बड़ी सी कपासी माला
और वह इतराता रहा था
किसी बच्चे की मानिंद
तिरछे होंठों से
मुस्कुराते हुए,
 
जिक्र नहीं
पहाड़ों पर छोड़ दिये गए
उन झूम खेतों का भी,
जो हैं अब केवल
यादों के धागे में लगी
एक गठान,
जिनका काम है
अपनी जगह बैठे बैठे
यह याद दिलाना
कि कौन कौन से बच्चे
पैदा हुए थे
उनकी बिजाई के साल
 
चुरा ली हैं आँखें
पहाड़ की सगोती
सियोम से,
जिस की कलकल है
उसके पास-पड़़ोस
का जीवनराग,
जो नदी से ज्यादा है
एक बातें सुनती सहेली,
एक भात खिलाती माँ,
एक कहानियाँ सुनाती दादी,
या सही मानों में
वेस्ट सियांग की आत्मा,
 
छोड़ कर आगे
बढ़ रहा हूँ मैं
आहिस्ता आहिस्ता
अपनी वीरानगी से ही
दीवाना बना लेने वाली
बी.आर.ओ. की
ऊँघती सड़क ,
आधे रास्ते में ईगो होटल के
उडि़या मालिक की
मोनोपोलिस्टिक चाय,
अंतहीन कदलीवन
और वह सब कुछ
जो हो सकता है
शहर की कविता के लिए
अवाँछित,
उन नाटे आदमियों को भी
जिनकी पवित्र निगाहों की वजह से
श्वेता ने दिया है
वेस्ट सियांग को
स्त्रियों के लिए
सबसे सुरक्षित जगह का दर्जा,
और जहाँ मेरी पत्नी
पहली दफा घूम पाई है
बेपरवाह-बेखौफ,
छूट रही हैं रास्ते के साथ
वे औरतें भी,
जिनके पीछे
जरूरत भर के
कपड़े पहनने के बावजूद
नहीं फिरा करतीं
कामलोलुप निगाहें
बल्कि
फिरता है
उनके काँधे की टोकरियों में लदा
इन छोटी छोटी आदी
बस्तियों का
बगैर विदेशी निवेश वाला
समूचा अर्थशास्त्र
 
दुनिया का
सबसे सीधा-शरमीला
बायसन, मिथुन,
हमेशा की तरह
देख चुका है मुझे दूर से
गरदन उठा कर,
और है थोड़ा चकित
कि इस दफा
न मैंने उसे जी भरकर देखा
और न ही छेड़ा ,
पर शायद वह समझ रहा है
कि आज है मुझे
जाने की जल्दी
उन गुस्सैल इंसानों की बस्ती में
जहाँ कहीं
मिल सकेगी मुझे शायद
एक सुन्दर-सुघड़ कविता
 
काफी करीब पहुँच चुका हूँ मैं
अब उस कविता के
बी.आर.ओ.की
दुखी-छिली सड़क
जोड़ देती है
मुझको अचानक
एक चौड़ी खूबसूरत
सड़क के साथ,
सड़क
जो है रात दिन जागने की
वजह से बेचैन
और जिसकी
जलती आँखों को तलाश है
तो सिर्फ
फुर्सत की पहली नींद की
 
बहती है एक नदी
उसके भी पास से,
नदी जो बतियाती है
केवल अपने आप से,
नदी नहीं, अपितु वह तो है
एक राग-भाव विहीन
पहाड़ी लड़़की
जिसे धोखे से ले जाकर
बेच दिया गया है
सोनागाछी बाजार में
 
इसी सड़क और नदी के बीच
मिल रही है मुझे
पहली कविता,
और उस कविता में
सपाट चेहरों और
भावहीन आँखों वाले
अनगिनत मशीनी लोगों
के बीच
नोची जाती एक लड़की
 
इसी लड़की पर
ठिठक जाती है आकर
इस शहर की कविता
 
पर मुझ गँवार कवि की
कलम अकबका गई है
इस दृश्य पर,
 
थोड़ा समय चाहिए मुझको
कि पहले खुरच कर
निकाल पाऊँ मैं
वह पहाड़
जो अभी भी बैठा हुआ है
मेरी सोच
और इस कविता के बीच
 
फिर शायद
पोस्ट कर पाऊँगा मैं
तुम्हारे लिए वह कविता,
मुकाम पोस्ट - आलो,
जिला - वेस्ट सियांग
अरुणाचल प्रदेश के
सदर डाकखाने से
नहीं नहीं,
पिनकोड जरूरी नहीं
ऐसी जगहें
बहुत ज्यादा नहीं होतीं।

 

- पद्मनाभ गौतम

 

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