शनिवार, 29 सितंबर 2012

नई कविता - दुःख

जी भर कर
सींच भी नहीं पाया था
आंसुओं से जिसे
बीजने के बाद,
ना जाने कैसे
जी गया है एक दुःख
अपने ही हाथों
सिरजा हुआ

आज अचानक
आ खड़ा हुआ है सामने
शरारत भरी
मुस्कान के साथ,
दरवाजे की
सांकल पकड़े,
एक पैर थपकते
ज़मीन पर,
अनजाने नम्बर से आई
किसी बरसों पुराने
दोस्त की
आवाज़ की तरह

पहचान लिया है
उसने मुझे और
मैंने उसको,
और बस
घुलने लगा है वह
हवा में
अपनी आमद की  तरह
अचानक,
मुझे छू लेने के बाद

बस इतना ही पर्याप्त था जैसे
उसकी तृप्ति के लिए,

न जाने क्यों इन दिनों
हो गई है रातों की नींदें
आसान

हो गई है खत्म
एक लगातार रहने वाली
बेचैनी

अब नहीं भागता हूं
मैं सपनों में बदहवास
बेमकसद
बेतहाशा,

इन दिनों
बहुत गहरी नींद
सोता हूं मैं।


पद्मनाभ गौतम
आलंग, अरूणाचल प्रदेश
20.09.2012

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कुछ नई कविताएँ ...


दुनिया से अलग

सात बहनों के
कुटुंब की है जो
जीवन रेखा,
इन दिनों
लोहित है नाराज़।

पाँच दिनों से
अँधेरे  में हैं हम,
और कोने में पड़ा  इन्वर्टर
बता रहा है कंधे उचका कर
हमारे लिए
विज्ञान की सीमा।

नाराज लोहित ने भी तो
दिखाई है हमे
प्रकृति की सीमा ही

बंद है
इन दिनों डिब्रूगढ -आलंग सड़क
और हैं बंद
रसद की गाडियाँ ।

केवल लाही पत्ता
और केले के फूल
पक रहे हैं
सब्जियों के नाम पर

फोन की सारी लाईनें पड़ी हैं बेकार

बमुश्किल मिल पा रही हैं
बाहर गाँव की खबरें,
इडियट बॉक्स
पड़ा है कोने में
खामोश,

इन दिनों
हम दिन रहते
निपटा लेते हैं सारे काम,
जल्दी खा पीकर
घुस जाते हैं
कम्बल में साँझ को ही,

मोमबत्तियाँ लड रही हैं
हमारी खातिर अँधेरों से

ढेर सारी बातें
करते हैं हम
इन दिनों,
करते हैं बातें
उन औरतों की
जिन्होंने करके
लालटेन के उजाले में
कपड़ों पर तुरपाई
पाल लिए
अनाथ बच्चों के
पेट,
याद आ जाती है
बरबस
निरूपाराय के
होंठो  में दबे
सुई और धागे की

बच्चे जान रहे हैं
आदिमानवों के बारे में
कि किस लिए
और कैसे जलाई होगी
उन्होंने
पहली बार आग

आज भी
खा पीकर
घुस गए हैं हम
बिस्तर में,
पत्नी पास बैठकर
गा रही है कोई
अजूबा फिल्मी गीत,
और चिढ़ाती है लेकर
पूर्व प्रेयसी का नाम

हँस रहा हूँ हौले हौले
इस शरारत पर,
यह सोचते हुए कि ,
सचमुच
कितने खूबसूरत हैं ये दिन

ये अँधेरों के दिन

कभी कभी अच्छा लगता है
रहना
दुनिया से अलग
अँधेरों  के साये में।

आलंग
अरूणाचल प्रदेश
२५.०९.२०१२




किंडरजॉय

किन्डरजॉय के लिए
मचल गई है बिटिया
दुकान के सामने,
और मैं समझा रहा हूं उसे
पाँच रूपए के
सामान के पीछे
पच्चीस की
मार्केटिंग का गणित,
कि खरीद ले वह
इसी दाम की
कोई और चाकलेट
जिसमें हो
ईमानदारी से
टैक्स भरकर
कमाए रूपए की
पूरी कीमत वसूल ।

दुकान पर बैठी महिला
करती है
मुझ पर
कटाक्ष,
कि नहीं पूछूँ मैं      
एक चॉकलेट का दाम,
जिसकी कीमत
पैसठ रुपए सुनकर
हो सकता है
मेरा हार्ट फ़ेल

"आप लोग तो हमेशा
कम दाम की चीज़
खोजते हैं ना"।

सुनकर  हूँ
अवाक
कि किस तरह
धो दिए गए हैं
हमारे दिमाग,
कि रह गया है
हैसियत का पैमाना
सिर्फ और सिर्फ
अंधाधुंध खर्च।

क्या बताऊँ उसे
कि इस तरह
सिखा रहा हूँ मैं
विपरीत परिस्थितियों में
जीने की वह कला,
जो शायद
एक गरीब मास्टर का
आत्मज ही
सिखा सकता है
अपनी आत्मजा को।

क्या बताऊँ कि
सीख रही है मेरी बेटी
उस देश मे जीने का हुनर,
जिसने मूर्खोचित गर्व के साथ
कर लिया है
अमरीका से आयात
कोक, डॉनटस और
पिज्जे की
होम डिलीवरी का शौक,
लेकिन बदनसीब
उनसे ही
नही सीख पाया
साढ़े सात सौ डॉलर
प्रति माह की
सोशल वेलफेयर स्कीम

नही कहूँगा जुमला
(कविताओं के लिए बासी)
कि आज भी
नगरपालिकाओं में बैठे
सुनइया मामा
चट कर जाते हैं
वृद्धा पेंशन के
डेढ़ सौ में से
पचहत्तर रूपए।


बस चुप हूँ मैं
और
कर रहा हूँ महसूस
उस औरत के भीतर घुसे
प्रेत को
जो घुस जाना चाहता है
मुझमें भी
गड़ा कर मेरी गर्दन
पर दाँत

और अब  

फेर ली हैं
मैंने अपनी आँखें

शुक्र है अभी तक
नहीं धुला है इस क़दर
मेरा दिमाग
कि बताने लग जाऊँ
उस औरत को
अपनी पगार
और अपनी खरीदने की
अगाध ताकत

पद्मनाभ
आलो, अरुणाचल प्रदेश
19/09/2012

पूर्व प्रकाशित कविताएँ......

कुछ पुरानी पत्रिकाएँ जो अरुणाचल मे मिल पायीं , उनमें प्रकाशित कविताएँ -

पोखरी खदान मे कोयला बीनते मारे गए बच्चे के लिए. 
(प्रगतिशील वसुधा-66 जुलाई-सितम्बर 2006)

लड़ रहा था  
वह योद्धा 
उस पोखरी खदान मे 
भूख, समय 
और सर पर छतरी बन कर 
तने ईश्वर से, 

कई लड़ाइयाँ एक साथ 

उठा रही थीं हथेलियाँ
एक एक मुट्ठी कोयला, 
हर एक खेप मे 
खिल खिल जाते थे 
कटीली बाड़ के पार खड़े 
झुराए धूधुर सने 
चेहरों की नन्ही नन्ही
आँखों में गेंहुअन सपनों के फूल,
हरियरा उठते उनके चेहरे
हर खेप के बाद संचय को देख कर,
उन्हें नहीं था इल्म इस बात का
कि उनके सर पर 
कभी भी बरप सकता है 
ड्रेगलाइन का कहर,
और इसका कि ईश्वर भी फुला रहा है नथुने 
उनके इस दुष्कृत्य पर.
ड्रेगलाइन 
जो ज़मीन की परतें उखड़ता-उधेड़ता 
नाच रहा था शेरनाच,
अपने नाखूनों से मिनटों मे उसेलता 
कोयले की परतें, 
जमाया था जिसे 
कंधे पर ढो ढो कर 
पुरखिन नदियों ने 
हजारों सालों में 
पुरखौती हांडी की तरह
आनेवाली संततियों के लिये, 
डोह रहा था जिसे  
मुठ्ठियों मे भरकर 
उन नदियों का नन्हा वारिस. 
अचानक टूट पड़ा 
वह गर्वीला दानव 
उस दुर्बल काया पर
लेकर हजारों टन मिट्टी का अंबार, 
क्षण मे हो गई तहस नहस 
उन मलिन चेहरों की दुनिया 
मनसबदार चीखे 
ट्रेसपासर था, मारा गया
खाकी वर्दी ने कायम किया मर्ग

लेकिन सब इतने बेदर्द नहीं थे 
उस वक्त मिट्टी रो रही थी चुपचाप
हवा थपथपा रही थी उसके नन्हें गाल 

और ईश्वर , 
वह तो दबे पाँव गायब 
हो गया था कभी का,
बगल में दबाये अपनी छतरी 


                                           **********************************
                                           ********************************** 
                                           **********************************

सुआगीत   (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

कहाँ से लाती हैं
अपनी आवाज में
इतना दर्द और कंपन
ये सुआ गीत गाती
लड़कियाँ,
सुन कर जिसे ठिठक जाते हैं
राहगीरों के पैर,
काँपते है दरख्त
और
सिहरती है हवाएँ,
गायें चरना छोड़ कर
निहारती हैं गौर से,
बछड़े चुहुकते हैं
पेनहाए थानों को
और अधिक तेजी के साथ,
हरहराकर बहता गेज का पानी
एकाएक जैसे हो जाता है
खामोश
हर आँख खोजने लगती है
आवाज़ की दिशा
उतार जाता है यह
सम्मोहक क्रंदन
कानों से होते
शरीर के रोम रोम में
जब गाती हैं लड़कियाँ
थपका थपका कर  तालियाँ
'मोला तिरिया जनम झन देय
मोर सुगना'
ओ सीता माँ
आखिर कितना लंबा चलेगा
बार बार परित्यक्ता होने का
वह अविवेक पूर्ण अभिशाप
जो दिया था तुमने
अपनी ही बेटियों को
होकर कुपित
उनकी किसी लड़िकहुरहुरी पर
क्या तुमने खुद भी
सोचा था इसका दुष्परिणाम
कि आज तक तलाशती हैं
लड़कियाँ
गाकर सुआगीत
अपनी शापमुक्ति का उपाय
कब दूर होगा
यह करुणविलाप
जो बसा हुआ है
वनपुत्रियों के कंठ मे
हज़ारों वर्षों से
शूल की तरह
तुम ही बताओ
कि कब होगा
तुम्हारी अपनी बेटियों का
अहिल्या की तरह उद्धार

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

जंगली धान  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

जारी है लड़ाई
महमहाती 
वर्णसंकर धान की
फ़सलों के बीच उगी 
जंगली धान के 
सफाये की,
उग आती है जो 
न जाने कहां से
बिना बुने छींटे हर साल
और चूसती है धरती से 
ऊँची नस्लों का हिस्सा,
वे नस्लें जो
तैयार हुई हैं बरसों की
मेहनत और शोध के बाद,
देती हैं जो
चौगुनी पैदावार
और पछाड़ती हैं स्वाद में
बिशुनभोग और जीराफूल को
और यह बेशर्म
जंगली धान
जिसमें न स्वाद 
न गंध
बस करती है नष्ट
सुकुमार नस्लों की 
पैदावार। 
मुई इतनी बेईमान 
कि बिना बीज आये
कर पाना मुश्किल है
दोनों के बीच कोई फर्क,
छूते ही झर जाती है
कम्बख़्त खेतों में
और फिर आ जाती है
बिना बुलाये अगले साल। 
छपा है अख़बार में
कि अब खोजी जाएंगी
नयी नस्लें
जिनकी पौध होगी
बैंगनी और नीलाभ,
हो जाएगा जो तब आसान 
छाँटना
इस अवाँछित नस्ल को
पूछती हैं अख़बार पढ़ती माँ 
मुझसे यह सवाल
कि अगर न रहेगी 
यह जंगल की धान 
तो कहां से आयेगा
हरछठ में पसही चावल
कैसे होगा व्रत का पारण/
भला जोत बो कर उगाये
धान से भी तोड़ेगा कोई 
हरछठ का उपवास
नहीं बूझ पाती माँ इतना
कि मिटाया नहीं जाएगा
जंगली धान का अस्तित्व 
गड़हे-गढ़नियों और पोखरों 
की कीच से
और नहीं बताना चाहता
मैं उसे यह बात 
कि करती है वह 
जिस पसही से पारण
वह उगाया जाता है
फार्म हाउसों में
जंगली धान के नाम पर 
जोत बो कर
वर्णसंकर धानों के समान। 

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

दरख़्त   (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

एक एक कर कटते गए
आंगन के सारे दरख़्त
किसी न किसी हादसे के बाद

वहाँ उस ओर 
जिसे कहते हो तुम दख्खिनघर
कभी वहां पर
झूमता था ब्यौहार
बनाया था जिस पर
भाई ने मेरे लिए
जोड़ कर पटरे हवामहल
और
जिसके गोंद से बनी पतंगों से
मिनटों में काट देते थे हम 
सिंचाई कॉलोनी के बूट छाप लड़कों 
की चमचमाती बाजारू पतंगें।
उधर था बारहमासी सहिजन
बाँटती थी जिसे माँ पास पड़ोस से लेकर
सैकड़ों मील दूर बसी बहिनों के घर तक ,
थकती नहीं थी माँ
अपने सहिजन के स्वाद के गुणगान से,   
पूरब के दरवाजे की जगह थी
बिना बीज की बीही
देर रात जब थक जाती थी माँ
सुना कर मुझे और बहन को 
कहानियाँ
तो उलझा देती थी इस सवाल पर 
कि कहो कैसे उगी होगी
उसकी सबसे पहिलीं गांछ,
हमेशा सुला देती थी माँ
बड़ी आसानी से 
उलझाकर हमें 
इस कठिन पहेली में
पास ही था सीताफल
उसके बड़ी बडी आंखों वाले फल
बुलाते थे हमें इशारों से, 
जब कभी निगल जाते थे 
गूदे के साथ उसके बीज
तो डराती थी माँ
कि अब उगेगा पेट के भीतर से
सीताफल का बहुत बड़ा झाड़, 
कट गए एक एक कर 
बचपन के संगवारी
शीशम, गुड़हल, मीठीनीम
और अहाते पर
जबरन उग आया पीपल
आज कट रहा है अशोक,
रोपा था जिसे माँ ने
अपने हाथ से, 
सींच कर पीतल की 
टुटही बाल्टी से पानी
रोज नापती थी
वह उसकी बाढ़
और पढ़ती थी
'राई, नोन भटकटइया के झूला परे' 
का अमोघ नजर काट मंत्र,
करती थी माँ उसके नाम पर 
इतना एतबार
कि करवाये उसने घर के सारे ब्याह
इसी असोक को मानकर
शादी का मड़वा,
आज कटवा रही है माँ
उसी अशोक को
रोकता हूँ उसे तो
बिना कुछ बोले
निहारने लगती है
आसमान
कितनी वहमी हो गयी है माँ
पिता की मृत्यु के बाद
कि दिखती है उसे
हर दरख़्त की छाँव मे
मनहूसियत
और इसी सुब्हे पर 
कटवाती जाती है
आँगन के दरख़्त
कि शायद हो जाएँ कम 
उसकी दुश्वारियाँ 
इस कम्बख़्त छाया के 
हटने के बाद

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

टोना  (कृति ओर,  जनवरी-मार्च 2005)


तनिक भी नहीं लगती थीं अभद्र
तुम्हारी घुटनों तक धोती
और खोखराए धूल सने पाँव,
फबते थे तुम पर
तेल चभोके बाल,
उनके बीच 
मुश्किल से से राह बनाती
अनगढ़ मांग और 
लापरवाही से भरा
पीला सेंदुर,
तुम्हारे कठिन परिश्रम
के कारण बहे 
पसीने की हींक से
महक जाती थीं हवाएँ,
नहीं था बिल्कुल भी अश्लील 
तुम्हारा उन्मुक्त आचरण,
चलना बेफिक्री के साथ
डालकर प्रेमी के 
हाथों में हाथ,
नोचा-चोंथी, ठिठोली
और झगड़े,
किसने कहा था कि
लगता था फूहड़
तुम्हारी देह पर गुदा गुदना,
वह तो था
तुम्हारे सांवले सौंदर्य का
अद्भुत श्रृंगार
इस लोक से उस लोक तक
साथ निभाने वाला
तुम्हारा दैविक अलंकार,
सुनकर झूम जाती थीं दिशाएं
सुनकर तुम्हारे
’चंदैनी गोंदा’ और
’पियर लुगरा वाली’ के गीत, 
दरअसल कहा जाए तो 
अश्लील है यह
तुम्हारा नया रूप ही,
यह चुन्नटों वाली साड़ी
और नाप तौल कर
रखे जाते कदम
यह छिपाकर निकाली हुई मांग,
और स्टिक से लगाया सिंदूर,
टाल्कम की खुशबू
और गिलट के जेवर
नही लगते दिलकश
तुम्हारे होंठों से निकले 
सिनेमा के गीत,
तुम्हारी पनियाई
निश्छल आंखों में 
सिमटी रहतीं थीं
कितनी अद्भुत कविताएँ
जब तक नहीं जानती थीं वे
यह फर्क
कि किस तरह गिरा और उठा जाता है
जरूरत के हिसाब से
जानती हो,
तुमसे तुमको ,
हाँ तुमको ही
छीन लिया है,
तुम्हारे इस नए अंदाज़ ने
ओ रमदइया के बैगा
तुम क्यों हो ख़ामोश,
निकालो तो बाहर
इस उल्टे पल्ले की चुड़ैल को
जो मार रही है
हमारे गाँव घर की
बेटियों की मासूमियत पर
भयंकर टोना। 

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

कुदरगढ़  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

पैरों में छोटे छोटे
घुंघरू छुनछुनाते
चढ़ता है छोटा सा मेमना
कुदरगढ़ की थका देने वाली
खड़ी चढ़ाई
बिना रूके-बिना थके
लगातार,
हाँफने 
लगते हैं इन्सान
और थक कर बैठ जाते हैं
सीढि़यों पर,
बताता है एक सयाना
श्रद्धा के साथ सिहरते हुए
कि कहीं तो है कोई ताकत
जो बताती है रास्ता
इन मेमनों को,
तभी तो वे भटकते नहीं हैं रास्ता,
और लौटकर
वापस भी नहीं आते,
पहुँचते हैं सीधे
बलिवेदी पर
नहीं बढ़ते उससे आगे
एक रत्ती
और उस ओर तो कदापि नही
बहकर समाती है जिधर
बलि के बाद बहती उनकी रक्तधारा,
और 
जहां रखी जाती हैं
सम्भालकर
उनकी देहें और कटे हुए सर
देवी मां के प्रसाद स्वरूप

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

दुविधा  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)


गोष्ठी मे
चले लंबे विमर्श के बाद
निकला हूँ बाहर
घर वापस जाने के लिए
अभी अभी बूझी हैं
ग्लोबलाइज़ेशन और
उपभोक्तावादी संस्कृति से
उपजी तकलीफें।
निकला हूँ बाहर
सीख समझ कर
बाज़ार की साजिश
स्टेशन पहुँचने से पहिले
देखकर बाज़ार
याद आती हैं
पत्नी की फरमाईशे
फॉ,लैक्मे और वूडू के
नेलपेंट , स्प्रे और पाउडर
और बेटे की जिद
कि इस बार ला ही देना
रायपुर से बैटरी से चलने वाली
चाइना मोटरसाइकल।
अगर नहीं ले जाता हूँ
तो घुसने न देगा
वह छुटका
मुझे घर के भीतर ही,
एक पैर मुड़ता है
बाज़ार की ओर
और एक पैर
स्टेशन की जानिब
हथेलियाँ जाने क्यों
रगड़ रही हैं
खादी के कुर्ते की आस्तीनों को,
ओह यह दुष्ट रेल का इंजन
बजाकर जल्दी से सीटी
बुला क्यों नहीं लेता
मुझको अपनी ओर।

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

निर्वात  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

कहोगे तुम अगर 
तो बुहारकर साफ
की जा सकती है
तुम्हारे आसपास की
यह ज़मीन
किन्तु अगर तुम
यह जिद करो 
कि बचने न पाए
धूल का एक भी कण
तुम्हारे इर्द गिर्द
तो इसे तुम्हारा
भ्रम ही समझो,
ठीक है कि ढंग से 
साँस नहीं ले पाते हो तुम
गर्दो-गुबार के बीच 
और शायद
तुम से अच्छा कोई न समझता हो
सफाई का मतलब
नामुमकिन है यह काम,
क्या तुम स्वयं
यह नहीं जानते
कि कहाँ नहीं 
रहती गर्द?
हाँ, बिल्कुल ठीक
निर्वात ही है 
इसका जवाब
और क्या तुम खुद भी
नहीं समझते
निर्वात में सांसे
लेने का मतलब

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

सड़ांध  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

सभी जानते हैं कि
खुली हवा से ज्यादा
सुखकर नहीं है
साँस रोक कर पानी में 
डुबकी लगाना
फिर भी
फेफड़े भरकर
ताजी साँस लेने की जगह
डूब जाते हैं हम
बन्द कर आंख और कान
तालाब की गहराई में
जहाँ है केवल
सड़ांध मारती कीच और 
अकबकाहट
फिर भी जितनी ज्यादा देर 
तक रहते हैं
इस घुटन में
उतने ज्यादा गर्वित 
होकर बाहर निकलते हैं 
ताजा हवाओं के बीच
                                           **********************************
                                           ********************************** 
                                           **********************************
कस्बे की दुनिया  (काव्यम्,कोलकाता,सितंबर-अक्टूबर 2004 अंक)


सिटी ऑफ हारमनी के देशी संस्करण की तरह
चल रही है कसबे की दुनिया उसी सालों पुराने ढर्रे पर 
बदस्तूर

भली सुबह बीच जाती हैं दूकानों की सीढ़ियों पर
शतरंज और लूडो की बिसातें,
सड़क से गुजरते राहगीर खिलाड़ियों को घेर कर
बदने लगते हैं शर्तें
और इस चक्कर मे भूल जाते हैं
सारे जरूरी काम

लड़कियां खोजती है
ब्यूटीपार्लर जाने के लिए माँओं का साथ
और भिनक ही पड़ती हैं सुनकर
सब्जी बाज़ार से सब्जी लाने का नाम

चांडालचौक पर शराब पीकर बमकता है सुखना
सुनाता है कालरी के एक-एक भ्रष्ट अफसर को
भरपेट गालियां
पूरी गंभीरता के साथ शामिल हो जाती है
इस पराक्रमोत्सव में
मजदूरों के निकम्मे लड़कों की खलपट सेना

जब भी घटती है बारिश मे घुलकर
लगभग अदृश्य हो चुके राष्ट्रीय राजमार्ग पर
कोई दुर्घटना
उमड़ पड़ती है भीड़
जो करती है भरसक कोशिशें
कि बच जाए घायल की जान
और एकाध धौल खाकर चुपचाप निकल जाए
बड़ी गाड़ी चलाने वाला तयशुदा कुसूरवार

चूकते नहीं हैं लोग मरणासन्न आदमी के लिए रक्तदान से
और बिगड़ जाते हैं सुनकर इस के एवज मे
दूध और फल तक की बात

घर के दरवाजे पर आए नीम पागल को
प्रेम से खाना खिलाती हैं गृहस्थिने
हालांकि वे नहीं भूलती हैं गरियाना
पड़ोस के कस्बे के लोगों को
जो रोडवेज का टिकट कटाकर
भेज देते हैं हर पागल को
उनकी बस्ती मे आराम की जिंदगी के लिए

रात गुजरता है जब कोई
कस्बे की अंतरिक्ष से भी ज्यादा अंधेरी गलियों से
नही रोकते पुलिस वाले उसे पूछताछ के लिए
जैसे वे जानते हों कि कोई भी नहीं है अपराधी यहाँ

आज भी लोग करते हैं शिकायतें बदस्तूर
कि कहाँ से कहाँ पहुँच गई ये दुनिया
पर नही कर पाया ये कस्बा एक रत्ती विकास

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
बेटियाँ  (काव्यम्,कोलकाता,सितंबर-अक्टूबर 2004 अंक)

गूँज रही है  
धान के कटोरे में  
रोपा गीतों की आवाज़
जैसे बज रहे हों 
एक सम स्वरलहरी पर 
सैकड़ों तानपूरे,
पलेवा किया खेतों में
कतारबद्ध खड़ी औरतें 
जगा रही हैं रोपा
बड़े जतन के साथ
धान के बिंडे से चुनकर
करीने से एक एक बाली
रखती हैं वे धरती माँ के 
तार तार आँचल पर

सम्हाल रही है माँ बड़े जतन से
बेटियों की दी इस सौगात को,
जानती है वह कि  
इसके बदले मे लौटाना है उसे 
अपनी बेटियों को ज्यादा से ज्यादा
जैसे लौटाती हैं माएँ 
बिटिया के ससुराल से आया बायन
समाइत भर दो गुना,
चौगुना, अठगुना,
चाहे कहीं से लेना पड़े उधार 
चुकाती हैं माएँ बेटियों का कर्ज/
बिना बेटियों को बताए
चुपके से कर देती हैं माएँ
ससुराल मे बेटियों की इज्ज़त और खुशी 
के लिए हर इंतज़ाम 

चिंतित है धरती माँ
कहाँ से लाएगी इतना अन्न
अपनी बेटियों की खुशी के लिए
ठीक से बरसा नहीं आषाढ़     
मुंह बिराकर निकल गई 
दो दो सावन की सौगात

नहीं है धरती माँ के पास जाँगर
कि भर सके खलिहान में 
अनाज के ढेर
परेशान है वह कि कौन देगा उसे उधार
जिससे बचा सकेगी वह
बेटियों की खुशियाँ और मुस्कान
बेटियाँ जो दिन भर बतिया कर 
उससे अपना दुख दर्द 
और सौंप कर सारी विपत्तियाँ
चली जा रही हैं मस्ती में, 
पूरा ढर्रा घेर कर हँसती खिलखिलाती
साँझ ढले घर की ओर

देख रही है धरती माँ उदास
जाती हुई अपनी बेटियों को
और अपने तार तार आँचल को।   




पद्मनाभ गौतम 
बैकुंठपुर, जिला - कोरिया (छ.ग.) 



                                   **********************************

                                           ********************************** 
                                           **********************************


प्रतिरोध  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)



जाने कैसा 
महसूस किया होगा 
जंगलों ने 
जब रौंदी गई होगी 
उनकी जमीन 
अनचाहे कदमों के तले 
पहली बार


शायद दुनिया की 
खूबसूरती के बारे में 
पहली बार टूटा होगा
उनका भ्रम
उसी तरह
जैसी बिखर कर 
तार तार हो जाता है 
किसी खिलन्दड़ी लड़की का 
निश्छल मन 
किसी जानवर की 
हवस का 
शिकार बनने के बाद  
फिर भी जाने क्यों 
जंगलों ने 
नहीं दर्ज कराई शिकायत 
न ही चीखे 
न ही गिड़गिड़ाए 
शायद जंगलों का मौन ही 
होता होगा 
उनका सबसे बड़ा 
प्रतिरोध 


^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

स्त्री  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)
\

वह वहीं पर
हो गई विराट
जहाँ वह पहली बार
कहलाई थी शून्य

वह वहीं पर
सिद्धा हो गई
सबसे ज्यादा निश्छल
जब उसने
चुपचाप स्वीकार कर लिया
कहलाना विनाश की जड़

वह वहीं पर फैल कर
हो गई आकाश
जब बिछाया गया
उसे धरती बनाकर
सबसे पहले

हालाँकि,
वह उसी जगह
होकर रह गई विलीन
जहाँ वह आई थी
इस दुनिया में
पहली बार
और बावजूद इसके
कि वह
कभी न कर सकी
कोई भी ऐसा काम
जिसे किया जा सकता याद
फिर भी संभवतः
की गई याद
दुनिया में
हर चीज से बढ़कर
बड़े लोगों,
बड़ी चीजों
और बड़ी घटनाओं
से पहले
सबसे ज्यादा बार

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

न्याय  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)

नस्लों का बँटवारा
करते समय
दे दिये तुमने
दुबले पतले मगर को
नुकीले दाँत
और साथ में दे दी
हर खाद्य-अखाद्य
खाने की छूट,
फिर दे दी
भीमकाय गजराज को
घास खाने की हिदायत
और भेज दिया
पानी पीने के लिए
तालाब में
तुम्हारी ही दी हुई
हिदायत को मानकर
जब पकड़ा मकर ने
गजराज को,
मकर की धृष्टता पर
तुम हो गए नाराज
सुन कर
गजराज के मुंह से
स्त्रोत वाचन
कर दिया मकर का संहार
और इस तरह कर दिया
अपना अद्भुत न्याय

लेकिन
समस्त स्वीकारोक्तियों के बीच
एक प्रश्न,
भला तुमने मकर को
यह क्यों न सिखाया
कि  उसे  खानी हैं
केवल मछलियाँ
और गजेंद्र से
किसी ने यह क्यों न पूछा
कि वह
पाने पीने के लिए
लंबी सूंड होने पर भी
क्यों उतरा पानी में बनकर
मकर भोज

हाँ, लेकिन
अब भी है हमें विश्वास
कि सब कुछ होता है यहाँ
केवल और केवल
तुम्हारी सदेच्क्षा से
हमें पूरी तरह यकीन है
तुम्हारे महान न्याय पर

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^

नक्सलाइट बेल्ट में    (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)

बस जरा-सा
दूर कर दो
यह जंगल की
सीमा रेखा,
वह कर रहा था इशारा
जंगल में खोदी गई
फॉरेस्ट लाइन की ओर,
कि हमें हमारे ही
जंगलों से बेदखल कर
दिया गया है,
हमने देखा था उसे,
वादरफनगर के जंगलों में
कोसना के नशे में
गिड़गिड़ाते हुए

तब तक हम
नहीं जानते थे
कि ऐसे होते हैं जंगली
और तब पहली बार टूटा था
उनके तौर तरीकों और
क्रूरता के बारे में
फैन्टम गाथाएँ पढ़कर
उपजा हुआ भ्रम
जब हाथ जोड़
रिरियाते देखा था उसे
बीहड़ जंगलों के बीच
सपरिवार
अपनी पत्नी और
आधा दर्जन नाक बहाते
बच्चों के साथ

हमें जंगल दरोगा
समझकर वह
किए जा रहा था फरियाद
कि हम कर दें
जंगल की सीमा रेखा
जंगल से और दूर

वह एक पैर से था तैयार
कि ले लें हम
उसकी बरसों की जोड़ी
हुई पूंजी में से
एक बोतल कोसना
और एक मुर्गा
तथा और ज्यादा जिद करने पर
एकमात्र बकरा भी,
किन्तु किसी भी तरह
कर दें फॉरेस्ट लाइन को
उसकी जमीन से बाहर
घूमने दें हम उसे
उसके जंगलों में
निर्बाध
उसे देखा था
उस जंगली को
नक्सलाइट बेल्ट में


                                   **********************************
                                           ********************************** 
                                           **********************************


कराहते नहीं हैं पेड़   (कृति ओर, अंक- 31, जनवरी-मार्च, 2004, पृष्ठ-72)


मौन नहीं हैं जंगल
ध्यान से सुनो
अक्सर करते हैं वे 
बुदबुदाकर 
शांति की प्रार्थनाएँ,
अभी नहीं की हैं 
अख्तियार उन्होने  
प्रतिरोध की भाषा,
हालाँकि 
काटी जा रही हैं 
उनके दरख्तों की जड़ें,
और दीमकों ने 
कर दिये हैं 
तने खोखले
कराहते नहीं हैं पेड़
बस पढ़ते हैं 
कुछ अस्फुट मंत्र से
जैसे कर रहे हों जागृत
अपने भीतर की 
किसी शक्ति को 
जो एक दिन दफ़अतन
करेगी चीत्कार 
जब काटी जा रही होगी
जंगल के आखिरी दरख्त की 
आखिरी जड़
और तब न चाहते हुए भी 
बनना पड़ेगा 
धरती को रुदाली
बिखेर कर अपने केश
जब करेंगे जंगल
अपना अंतिम आर्तनाद

^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


आर्केशिया  (कृति ओर, अंक- 31, जनवरी-मार्च, 2004, पृष्ठ-72)

उग चला है 
आर्केशिया 
जंगलों में पड़ी
खाली जमीन
भरने के लिए
इससे बढ़कर 
और भला 
क्या होगा 
कि केवल 
दो ही सालों में
उसने भर दी है 
जगह सरई के  
बूढ़े दरख्तों की 
जिन पर 
पचासों साल तक 
चिड़ियों ने बिताए 
बेफिक्री के दिन
जाने कितने बोरर
छेड़ कर तने पालते रहे 
अपना पेट,
और जो 
आखिरी साँस तक 
डटे रहे इसलिए 
कि उनके सहारे 
काट ले जाए
मुखारी वाली गोंदिन 
उम्र की 
सातवीं दहाई भी 
हिम्मत के साथ
सरई के 
मीलों दूर तक पसरे 
जंगलों की जगह 
अब शान से 
डटा हैं 
आर्केशिया
यद्यपि अभी 
इतने मजबूत नहीं 
उसके तने 
कि डट कर 
कर सकें मुकाबला 
सरई के बचे-खुचे 
जंगलों से 
निकलकर
समय बेसमय 
आ जाने वाले 
अंधड़ों का 
और जरा भी नहीं है 
उसकी छाल सख्त 
कि हर आता जाता 
लिख जाता हैं उन पर
मनचाही इबारत
महज अपने नाखूनों से कुरेद कर  
















  






If you awake....means you were asleep.....

If you awake....means you were asleep..... After a long time, today I have opened my blog. The last post dates back in April 2015. After ...