जंगली धान (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
जारी है लड़ाई
महमहाती
वर्णसंकर धान की
फ़सलों के बीच उगी
जंगली धान के
सफाये की,
उग आती है जो
न जाने कहां से
बिना बुने छींटे हर साल
और चूसती है धरती से
ऊँची नस्लों का हिस्सा,
वे नस्लें जो
तैयार हुई हैं बरसों की
मेहनत और शोध के बाद,
देती हैं जो
चौगुनी पैदावार
और पछाड़ती हैं स्वाद में
बिशुनभोग और जीराफूल को
और यह बेशर्म
जंगली धान
जिसमें न स्वाद
न गंध
बस करती है नष्ट
सुकुमार नस्लों की
पैदावार।
मुई इतनी बेईमान
कि बिना बीज आये
कर पाना मुश्किल है
दोनों के बीच कोई फर्क,
छूते ही झर जाती है
कम्बख़्त खेतों में
और फिर आ जाती है
बिना बुलाये अगले साल।
छपा है अख़बार में
कि अब खोजी जाएंगी
नयी नस्लें
जिनकी पौध होगी
बैंगनी और नीलाभ,
हो जाएगा जो तब आसान
छाँटना
इस अवाँछित नस्ल को
पूछती हैं अख़बार पढ़ती माँ
मुझसे यह सवाल
कि अगर न रहेगी
यह जंगल की धान
तो कहां से आयेगा
हरछठ में पसही चावल
कैसे होगा व्रत का पारण/
भला जोत बो कर उगाये
धान से भी तोड़ेगा कोई
हरछठ का उपवास
नहीं बूझ पाती माँ इतना
कि मिटाया नहीं जाएगा
जंगली धान का अस्तित्व
गड़हे-गढ़नियों और पोखरों
की कीच से
और नहीं बताना चाहता
मैं उसे यह बात
कि करती है वह
जिस पसही से पारण
वह उगाया जाता है
फार्म हाउसों में
जंगली धान के नाम पर
जोत बो कर
वर्णसंकर धानों के समान।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
दरख़्त (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
एक एक कर कटते गए
आंगन के सारे दरख़्त
किसी न किसी हादसे के बाद
वहाँ उस ओर
जिसे कहते हो तुम दख्खिनघर
कभी वहां पर
झूमता था ब्यौहार
बनाया था जिस पर
भाई ने मेरे लिए
जोड़ कर पटरे हवामहल
और
जिसके गोंद से बनी पतंगों से
मिनटों में काट देते थे हम
सिंचाई कॉलोनी के बूट छाप लड़कों
की चमचमाती बाजारू पतंगें।
उधर था बारहमासी सहिजन
बाँटती थी जिसे माँ पास पड़ोस से लेकर
सैकड़ों मील दूर बसी बहिनों के घर तक ,
थकती नहीं थी माँ
अपने सहिजन के स्वाद के गुणगान से,
पूरब के दरवाजे की जगह थी
बिना बीज की बीही
देर रात जब थक जाती थी माँ
सुना कर मुझे और बहन को
कहानियाँ
तो उलझा देती थी इस सवाल पर
कि कहो कैसे उगी होगी
उसकी सबसे पहिलीं गांछ,
हमेशा सुला देती थी माँ
बड़ी आसानी से
उलझाकर हमें
इस कठिन पहेली में
पास ही था सीताफल
उसके बड़ी बडी आंखों वाले फल
बुलाते थे हमें इशारों से,
जब कभी निगल जाते थे
गूदे के साथ उसके बीज
तो डराती थी माँ
कि अब उगेगा पेट के भीतर से
सीताफल का बहुत बड़ा झाड़,
कट गए एक एक कर
बचपन के संगवारी
शीशम, गुड़हल, मीठीनीम
और अहाते पर
जबरन उग आया पीपल
आज कट रहा है अशोक,
रोपा था जिसे माँ ने
अपने हाथ से,
सींच कर पीतल की
टुटही बाल्टी से पानी
रोज नापती थी
वह उसकी बाढ़
और पढ़ती थी
'राई, नोन भटकटइया के झूला परे'
का अमोघ नजर काट मंत्र,
करती थी माँ उसके नाम पर
इतना एतबार
कि करवाये उसने घर के सारे ब्याह
इसी असोक को मानकर
शादी का मड़वा,
आज कटवा रही है माँ
उसी अशोक को
रोकता हूँ उसे तो
बिना कुछ बोले
निहारने लगती है
आसमान
कितनी वहमी हो गयी है माँ
पिता की मृत्यु के बाद
कि दिखती है उसे
हर दरख़्त की छाँव मे
मनहूसियत
और इसी सुब्हे पर
कटवाती जाती है
आँगन के दरख़्त
कि शायद हो जाएँ कम
उसकी दुश्वारियाँ
इस कम्बख़्त छाया के
हटने के बाद
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
टोना (कृति ओर, जनवरी-मार्च 2005)
तनिक भी नहीं लगती थीं अभद्र
तुम्हारी घुटनों तक धोती
और खोखराए धूल सने पाँव,
फबते थे तुम पर
तेल चभोके बाल,
उनके बीच
मुश्किल से से राह बनाती
अनगढ़ मांग और
लापरवाही से भरा
पीला सेंदुर,
तुम्हारे कठिन परिश्रम
के कारण बहे
पसीने की हींक से
महक जाती थीं हवाएँ,
नहीं था बिल्कुल भी अश्लील
तुम्हारा उन्मुक्त आचरण,
चलना बेफिक्री के साथ
डालकर प्रेमी के
हाथों में हाथ,
नोचा-चोंथी, ठिठोली
और झगड़े,
किसने कहा था कि
लगता था फूहड़
तुम्हारी देह पर गुदा गुदना,
वह तो था
तुम्हारे सांवले सौंदर्य का
अद्भुत श्रृंगार
इस लोक से उस लोक तक
साथ निभाने वाला
तुम्हारा दैविक अलंकार,
सुनकर झूम जाती थीं दिशाएं
सुनकर तुम्हारे
’चंदैनी गोंदा’ और
’पियर लुगरा वाली’ के गीत,
दरअसल कहा जाए तो
अश्लील है यह
तुम्हारा नया रूप ही,
यह चुन्नटों वाली साड़ी
और नाप तौल कर
रखे जाते कदम
यह छिपाकर निकाली हुई मांग,
और स्टिक से लगाया सिंदूर,
टाल्कम की खुशबू
और गिलट के जेवर
नही लगते दिलकश
तुम्हारे होंठों से निकले
सिनेमा के गीत,
तुम्हारी पनियाई
निश्छल आंखों में
सिमटी रहतीं थीं
कितनी अद्भुत कविताएँ
जब तक नहीं जानती थीं वे
यह फर्क
कि किस तरह गिरा और उठा जाता है
जरूरत के हिसाब से
जानती हो,
तुमसे तुमको ,
हाँ तुमको ही
छीन लिया है,
तुम्हारे इस नए अंदाज़ ने
ओ रमदइया के बैगा
तुम क्यों हो ख़ामोश,
निकालो तो बाहर
इस उल्टे पल्ले की चुड़ैल को
जो मार रही है
हमारे गाँव घर की
बेटियों की मासूमियत पर
भयंकर टोना।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
कुदरगढ़ (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
पैरों में छोटे छोटे
घुंघरू छुनछुनाते
चढ़ता है छोटा सा मेमना
कुदरगढ़ की थका देने वाली
खड़ी चढ़ाई
बिना रूके-बिना थके
लगातार,
हाँफने
लगते हैं इन्सान
और थक कर बैठ जाते हैं
सीढि़यों पर,
बताता है एक सयाना
श्रद्धा के साथ सिहरते हुए
कि कहीं तो है कोई ताकत
जो बताती है रास्ता
इन मेमनों को,
तभी तो वे भटकते नहीं हैं रास्ता,
और लौटकर
वापस भी नहीं आते,
पहुँचते हैं सीधे
बलिवेदी पर
नहीं बढ़ते उससे आगे
एक रत्ती
और उस ओर तो कदापि नही
बहकर समाती है जिधर
बलि के बाद बहती उनकी रक्तधारा,
और
जहां रखी जाती हैं
सम्भालकर
उनकी देहें और कटे हुए सर
देवी मां के प्रसाद स्वरूप
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
दुविधा (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
गोष्ठी मे
चले लंबे विमर्श के बाद
निकला हूँ बाहर
घर वापस जाने के लिए
अभी अभी बूझी हैं
ग्लोबलाइज़ेशन और
उपभोक्तावादी संस्कृति से
उपजी तकलीफें।
निकला हूँ बाहर
सीख समझ कर
बाज़ार की साजिश
स्टेशन पहुँचने से पहिले
देखकर बाज़ार
याद आती हैं
पत्नी की फरमाईशे
फॉ,लैक्मे और वूडू के
नेलपेंट , स्प्रे और पाउडर
और बेटे की जिद
कि इस बार ला ही देना
रायपुर से बैटरी से चलने वाली
चाइना मोटरसाइकल।
अगर नहीं ले जाता हूँ
तो घुसने न देगा
वह छुटका
मुझे घर के भीतर ही,
एक पैर मुड़ता है
बाज़ार की ओर
और एक पैर
स्टेशन की जानिब
हथेलियाँ जाने क्यों
रगड़ रही हैं
खादी के कुर्ते की आस्तीनों को,
ओह यह दुष्ट रेल का इंजन
बजाकर जल्दी से सीटी
बुला क्यों नहीं लेता
मुझको अपनी ओर।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
निर्वात (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
कहोगे तुम अगर
तो बुहारकर साफ
की जा सकती है
तुम्हारे आसपास की
यह ज़मीन
किन्तु अगर तुम
यह जिद करो
कि बचने न पाए
धूल का एक भी कण
तुम्हारे इर्द गिर्द
तो इसे तुम्हारा
भ्रम ही समझो,
ठीक है कि ढंग से
साँस नहीं ले पाते हो तुम
गर्दो-गुबार के बीच
और शायद
तुम से अच्छा कोई न समझता हो
सफाई का मतलब
नामुमकिन है यह काम,
क्या तुम स्वयं
यह नहीं जानते
कि कहाँ नहीं
रहती गर्द?
हाँ, बिल्कुल ठीक
निर्वात ही है
इसका जवाब
और क्या तुम खुद भी
नहीं समझते
निर्वात में सांसे
लेने का मतलब
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
सड़ांध (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
सभी जानते हैं कि
खुली हवा से ज्यादा
सुखकर नहीं है
साँस रोक कर पानी में
डुबकी लगाना
फिर भी
फेफड़े भरकर
ताजी साँस लेने की जगह
डूब जाते हैं हम
बन्द कर आंख और कान
तालाब की गहराई में
जहाँ है केवल
सड़ांध मारती कीच और
अकबकाहट
फिर भी जितनी ज्यादा देर
तक रहते हैं
इस घुटन में
उतने ज्यादा गर्वित
होकर बाहर निकलते हैं
ताजा हवाओं के बीच
**********************************
**********************************
**********************************
कस्बे की दुनिया (काव्यम्,कोलकाता,सितंबर-अक्टूबर 2004 अंक)