शनिवार, 20 अक्तूबर 2012

मार्गदर्शक पत्र प्रतिक्रियाएँ .........।


मार्गदर्शक  पत्र  प्रतिक्रियाएँ .........कविता से इतने वर्षों दूर रहने के बाद भी ये नहीं खोईं.......यह एक कवि के लिए सबसे बड़ी खुशी एक प्रतिक्रिया होती है ..इसलिए महत्वपूर्ण ....और तब ये पोस्ट कार्ड पर चल कर आती थीं मीलों-मील ...आज की तरह क्लिक पर सवार नहीं  ...
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रजतकृष्ण , 12-01-05

प्रिय गौतम भाई,
सप्रेम नमस्कार।
अभी अभी काव्यम् का नया अंक मिला। आपकी दो बहुत प्यारी कविताएँ और संवेदनपूर्ण वक्तव्य पढ़ने को मिला। बहुत  अच्छा महसूस कर रहा हूँ। आपकी दोनों कविताएँ - 1.बेटियाँ 2.कस्बे की दुनिया , मुझे आपके और भी करीब ले गई। आपकी संवेदनात्मक धरातल के साथ वैचारिक धरातल की गहराई से अवगत हुआ। .....
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                                                                                                          आपका अपना रजत

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विजय राठौर
गट्टानी स्कूल के सामने
जांजगीर, 495668 (म.प्र.)

प्रिय पद्मनाभ
असीम स्नेह
आज 'काव्यम्' में तुम्हारी कविताएँ पढ़ रहा था। 'बेटियाँ' और 'कसबे की दुनिया' अत्यंत सुंदर रचनाएँ हैं। इस लिहाज से भी कि इसमें लोक भाषा के सहज सरल शब्दों को भए स्थान मिला है। कस्बे की दैनंदिनी सहज सरल शब्दों में उतर आई है। इन कस्बों की अविकसित चेतना के लिए हम सब दोषी हैं। 52 साल की स्वतंत्रता में हम उच्चश्रृखल हुए हैं, नैतिकता हमें छू भी नहीं पाई है । खासकर मिट्टी के प्रति अपनापन बिलकुल नहीं है हममें। वैसे सच कहूँ तो तुम्हारा बयान कविता से ज्यादा गंभीर कविता है।  तुम्हारे भीतर का गुस्सा, पीड़ा और समय के साथ लड़ने की छटपटाहट  तुम्हारे आत्मकथ्य में एक फिल्म की तरह उतरी है। दैनिक देशबंधु की रचना की फोटो कापी भेजना। रचनाएँ अत्यंत मारक भी होती हैं , तुम्हारा निशाना ठीक लक्ष्य पर लगा हो इसलिए आपत्तियाँ  सामने आईं।
               बहरहाल मुखर मानसिकता के लिए बधाई। आशा है और भी बड़ी बड़ी पत्रिकाओं में तुम्हें पढ़ सकूँगा।
                                                 
                                                                                                              विजय राठौर



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                                                                                                                         रायगढ़ 13.01.05

पद्मनाभ भाई ,
         नमस्कार।
             आशा है स्वस्थ एवं सानंद होंगे। फोन से बात करने का प्रयास किया किन्तु तकनीकी व्यवधान के कारण संभव नहीं हो सका।
             'काव्यम्' में तुम्हारी दो कविताएँ - 1 बेटियाँ 2 कस्बे की दुनिया, पढे मैंने! पसंद आई! आशा करता हूँ कुछ और अच्छी कविताएँ आगे पढ़ने को मिलेंगी। संवाद बनाए रखना।
                             
                                                                                                   तुम्हारा अग्रज

                                                                                                 रमेश शर्मा 'परिधि'
                                                                                               गायत्री मंदिर के निकट
                                                                                                मालीपारा, बोरईदादर
                                                                                                    रायगढ़ , (छ.ग.)


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ए -127 , आवास विकास कॉलोनी, शाहपुर - 237006 , दूरभाष - 0551-2284220
08-01-05
प्रिय भाई ,
    काव्यम में आपकी कविताएँ पढ़ीं। 'बेटियाँ' कविता ने प्रभावित किया। वक्तव्य में 'संतयुग' पद का प्रयोग भी।
                              बधाई
                                                           नए साल की शुभकामनाएँ

                                                                                                          विनम्र
                                                                                                        देवेंद्र आर्य

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लोकतान्त्रिक समाजवादी पार्टी
रघु ठाकुर
राष्ट्रीय अध्यक्ष     दिनांक 15-11-04

प्रिय गौतम जी
अक्षरपर्व के अक्टूबर 2004 अंक में आपकी दो कविताएँ "न्याय" और "नक्सलाइट बेल्ट में" पढ़ीं। सदियों के अंधविश्वासों व मान्यताओं पर न्याय में जो प्रश्न उपस्थित किए हैं , वे अपने आप में ही उत्तर भी हैं व चेतना का संचार करने वाले भी। आदिवासी अंचलों में, चार दशकों से मैं, यथाशक्ति संगठन संघर्ष के कार्यों में लगा हूँ। तथा आदिवासी को ही यह व्यवस्था , जरा सी रियायत माँगने पर किस प्रकार नक्सल बना देती है, इसका वर्णन अद्भुत है । आपकी कविताओं को पढ़कर लगा कि आपको लिखना ही चाहिए भले ही औपचारिक परिचय न हो।  
                                                                                             
                                                                                                             हस्ताक्षर - रघु ठाकुर     
             

संपर्क- 27 ए,डी.डी.ए.फ्लैट्स, माता सुंदरी रोड, नई दिल्ली-2   फोन - 23239393
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लोहिया सदन, जहांगीराबाद, भोपाल, फोन - 2767249

गुरुवार, 11 अक्तूबर 2012

शहर की कविता


कांधे पर रखकर
कविताओं का खाली थैला
निकल पड़ा हूँ मैं
नजरें चुराता
उस पहाड़ से,
जो ताकता है मुझे
अपने ठीहे से दिनरात
और जिसे मैं
अपनी  बालकनी से,
जो भरता है
मेरा खालीपन
उतरकर मेरे अन्दर,
तब भी, जब कि
सो चुकी होती है सारी दुनिया
मेरे रतजगे से बेपरवाह,
और जब रात के चौथे पहर
खोजता हूँ मैं उसे
अंधेरे में आँखें फैलाते हुए

गए बुध की शाम
घिर आया था एक बादल
उसके इर्द-गिर्द,
जैसे पहन रखी हो उसने
एक बड़ी सी कपासी माला
और वह इतराता रहा था
किसी बच्चे की मानिंद
तिरछे होंठों से
मुस्कुराते हुए,

जिक्र नहीं
पहाड़ों पर छोड़ दिये गए
उन झूम खेतों का भी,
जो हैं अब केवल
यादों के धागे में लगी
एक गठान,
जिनका काम है
अपनी जगह बैठे बैठे
यह याद दिलाना
कि कौन कौन से बच्चे
पैदा हुए थे
उनकी बिजाई के साल

चुरा ली हैं आँखें
पहाड़ की सगोती
सियोम से,
जिस की कलकल है
उसके पास-पड़ोस 
का जीवनराग,
जो नदी से ज्यादा है
एक बातें सुनती सहेली, 
एक भात खिलाती माँ, 
एक कहानियाँ सुनाती दादी,
या सही मानों में
वेस्ट सियांग की आत्मा,

छोड़ कर आगे
बढ़ रहा हूँ मैं
आहिस्ता आहिस्ता
अपनी वीरानगी से ही
दीवाना बना लेने वाली
बी.आर.ओ. की
ऊँघती सड़क,
आधे रास्ते में ईगो होटल के
उडि़या मालिक की
मोनोपोलिस्टिक चाय,
अंतहीन कदलीवन
और वह सब कुछ
जो हो सकता है 
शहर की कविता के लिए
अवाँछित,
उन नाटे आदमियों को भी
जिनकी पवित्र निगाहों की वजह से
श्वेता ने दिया है
वेस्ट सियांग को
स्त्रियों के लिए
सबसे सुरक्षित जगह का दर्जा,
और जहाँ मेरी पत्नी
पहली दफा घूम पाई है
बेपरवाह-बेखौफ,
छूट रही हैं रास्ते के साथ
वे औरतें भी, 
जिनके पीछे
जरूरत भर के
कपड़े पहनने के बावजूद
नहीं फिरा करतीं
कामलोलुप निगाहें
बल्कि
फिरता है
उनके काँधे की टोकरियों में लदा
इन छोटी छोटी 
आदी बस्तियों का
बगैर विदेशी निवेश वाला
समूचा अर्थशास्त्र

दुनिया का
सबसे सीधा-शरमीला
बायसन, मिथुन,
हमेशा की तरह
देख चुका है मुझे दूर से
गरदन उठा कर,
और है थोड़ा चकित
कि इस दफा
न मैंने उसे जी भरकर देखा
और न ही छेड़ा ,
पर शायद वह समझ रहा है
कि आज है मुझे 
जाने की जल्दी 
उन गुस्सैल इंसानों की बस्ती में
जहाँ कहीं 
मिल सकेगी मुझे शायद 
एक सुन्दर-सुघड़ कविता

काफी करीब पहुँच चुका हूँ मैं
अब उस कविता के

बी.आर.ओ.की
दुखी-छिली सड़क
जोड़ देती है
मुझको अचानक
एक चौड़ी खूबसूरत
सड़क के साथ,
जो है रात दिन जागने की
वजह से बेचैन
और जिसकी
जलती आँखों को तलाश है
तो सिर्फ
फुर्सत की पहली नींद की

बहती है एक नदी 
उसके भी पास से,
नदी, जो बतियाती है
केवल अपने आप से,
नदी नहीं, अपितु वह तो है 
एक राग-भाव विहीन
पहाड़ी लड़की
जिसे धोखे से ले जाकर
बेच दिया गया हो
सोनागाछी बाजार में

इसी सड़क और नदी के बीच
मिल रही है मुझे
पहली कविता,
और उस कविता में
सपाट चेहरों और
भावहीन आँखों वाले
अनगिनत मशीनी लोगों
के बीच
नोची जाती एक लड़की

इसी लड़की पर आकर 
थम जाती है   
इस शहर की कविता      

पर मुझ गँवार कवि की
कलम भी तो 
अकबका गई है
इस दृश्य पर,

थोड़ा समय चाहिए मुझको
कि पहले खुरच कर
निकाल पाऊँ मैं
वह पहाड़
जो अभी भी बैठा हुआ है
मेरी सोच
और इस कविता के बीच

फिर शायद
पोस्ट कर पाऊँगा मैं 
तुम्हारे लिए वह कविता,
मुकाम पोस्ट - आलो,
जिला - वेस्ट सियांग
अरुणाचल प्रदेश के
सदर डाकखाने से

नहीं नहीं
पिनकोड जरूरी नहीं
ऐसी जगहें
बहुत ज्यादा नहीं होतीं।

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आलंग
20/09/2012


शुक्रवार, 5 अक्तूबर 2012

इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ कुछ कविताएँ


दृष्टि चाहिए उनके लिए
और वे भी चाहती हैं दृष्टि

बुन-छींट कर
उगाई नही जा सकती हैं वे
फसलों की तरह,
उन्हें तो केवल भर कलेजा
सूँघ सकते हैं हम
खदकते अदहन में डले
भात की गमक सा
या पढ़ सकते हैं ताजी गही धान के
ललछर-मटिहर रंग में

वे जो हैं हमारे इर्द-गिर्द
हमेशा से मौजूद

अभी उस दिन देखा था उन्हें
डिब्रूगढ के पास जमाइरा चाय बागान में,
और अपने आप गूँजने लगा था कानों में
भूपेन दा का गान -
“एक कली दो पत्तियाँ
नाज़ुक-नाज़ुक उंगलियाँ”

तोड़ने वाला और टूटने वाला
दोनों ही तो थे कविताएँ,

किसी रौशनाई ने नहीं रचा था उनको,
वे तो थीं वहाँ पर पहले से मौज़ूद,
भूपेन दा की मधुर आवाज़ में उतरने से
पहले भी और उसके बाद भी

इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ
कुछ कविताएँ

आँगन में बेटे के जगाए
पेरीविंकल के फूलने के साथ
आँखे खोलती
पहली दुधमुँही उम्मीद से

गुझिए सी मीठी अँगरेजी
उचारती बिटिया पर
न्यौछावर होती माँ की मुस्कान,
और उस मुस्कान के पीछे थिरकते
एक अधूरे स्वप्न से

छह साल के पोगम पादू के
उस गुस्से में भी तो
हुई है नाजिल एक कविता ही,
जो है सुबह से नाराज़
कि कैसे आ गया रात को अचानक
उसकी माँ की गोद में
वह गुलाबी सा नन्हा बच्चा
जिसे सब बता रहे हैं उसका भाई,
आज सुबह से शिकायत है उसे कि
-’सब प्यार करता है
केवल छोटा लोग को,
बड़ा लोग को तो कोई पूछता ही नहीं’,
और फिर बरबस ही मुस्कुरा देता है
मुझे देखकर वह छोटा
जो हुआ है अभी-अभी बड़ा,
बोलो, क्या नहीं है यह भी एक कविता ?

कुछ वहाँ भी दिखी थीं बगरी
ईगो बस्ती से  कुछ आगे
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क पर झूमते,
लाल दहकते मागर फूलों के
देवकाय वृक्षों की छाँव में

कुछ कविताएँ
चुनना चाहूँगा
बोगीबील फेरी-घाट की
आपाधापी से और यकीनन
कुछ लोहित से भी ज़रूर

पर लोहित से कविता चुनना
लग रहा है ज़रा मुश्किल,
दरअसल लोहित की
ज़्यादातर  कविताएँ तो
ले जा चुके हैं भूपेन दा पहले ही
काँधे पर टँगे बैम्बू बैग में डाल कर
और मगन मन गा रहे हैं
लोगों के दिलों मे बैठे हुए।

पद्मनाभ गौतम
आलो, अरूणाचल प्रदेश
20.09.2012



बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

कुछ विषम सा - गजल संग्रह

2004 मे प्रकाशित संग्रह "कुछ विषम सा" की गज़लें ...


(1)


शांति के आलाप मे रणनाद कैसा

संधि ध्वज के शीर्ष पर उन्माद कैसा

भस्म हो यदि होलिका विस्मय नहीं है

पर स्वतः जल जाए वह प्रहलाद कैसा

लो पिघल कर बह चली जलधार खारी

अश्रुओं को हर्ष क्या अवसाद कैसा

खो चुकी ध्वनि लौट कर आनी नहीं है

वीतरागी शब्द का प्रतिसाद कैसा

सूर्य अणु विस्फोट प्रतिक्षण कर रहा पर

नाद जो हद में बंधे वह नाद कैसा

(2)



चलो कि चाँद सितारों के घर चला जाये

चला हवा का काफिला जिधर चला जाए

मिला के हाथ सभी से सभी का हो जाना

बचो कि इक बचा न ये हुनर चला जाये

निगाहें खौफ क्यूँ खाती हैं सफ़र मुश्किल है

है जिद अगर कि इस पे उम्र भर चला जाये

दिखा रहे हो जिसे तुम मुझे जमाने से

कहो कि क्यूँ न दिल से अब ये डर चला जाये

बहें तो अश्क़ तबीयत है बहें शिद्दत से

बला से आखिरी ये मालोज़र चला जाये

चलो तो आज उड़ें और उड़ें सूरज तक

जलेंगे इससे पर ये छोड़ दर चला जाए


(3)



सोच समझ नादानी क्यूँ

छलनी रुकना पानी क्यूँ

घर के रस्ते पर लगती

मुश्किल हर आसानी क्यूँ

नए सुबह के गीत नए

फिर यह तान पुरानी क्यूँ

मुरली का हर सुर राधे

फिर मीरा दीवानी क्यूँ

जीवन तुम कहते कविता

चुभती हुई कहानी क्यूँ

जो है खुदमुख्तारी तो

सुब्होशाम वीरानी क्यूँ


(4)



सर झुकाए मौन सारे प्रश्नवाचक आजकल

हो गए सब सूक्त रक्षा के विनाशक आजकल

नेत्रावंचित रास थामे हाथ में इस देश की

दृष्टिसिद्धों को सिखाते चक्षु त्राटक आजकल

लिख रहे है श्वेत पत्रक अनपढ़ों के शोक पर

रात की स्याही बना कर शब्द साधक आजकल

नृत्य, नर्तक और वादक मौन मरघट ज्ञान से

गीत थक कर हो चले सारे विलापक आजकल

घर जले तो मूक बनकर देखने में लाभ है

अग्निवर्षक बन गए हैं अग्नि शामक आजकल


(5)



बैठते हैं छाँव मे अक्सर कहीं पर

मैं, सफ़र और रहगुज़र थककर कहीं पर

कौन साबित कर सकेगा पारसाई

हर नज़र है लौटती रुककर कहीं पर

दो दुआ अब आँख को तुम जागने की

खो गए हैं नींद, घर, बिस्तर कहीं पर

एक चेहरा धूप भी छाया भी जैसे

एक पर्वत है कहीं कंकर कहीं पर

किस तरफ जाएँ जरा इतना बताना

कहीं कातिल कातिलों का डर कहीं पर

पारसाई = पवित्रता 



(6)



जब गीतों से अक्षर ही मिट जाएंगे

तब ये ध्वनि और नाद भला क्या गायेंगे

वधशाला में बैठ लिखे जो छंद कठिन

जाने किन रागिनियों मे बांध पाएंगे

सभी अयाचित प्रश्नों पर दो क्षण का मौन

क्या ऐसे ही क्लेश मिटाये जाएंगे

पतझड़ में वृक्षों से फूट रहा यौवन

नवपल्लव किन ऋतुओं मे इठलाएँगे

मंत्रवेष्टित हम भी कब तक अनुरागी

हिम खंडों से अंगारे पिघलाएँगे


(7)


बीच शहर में जैसे वह उपवन है

मन की परतों मे इक अन्तर्मन है

कठपुतली सब नाच रही मेले में

हतप्रभ, गुमसुम खोया रंगभवन है

कब तक ढाँकेगी बद्ली मत पूछो

जगह जगह तो उधड़ा नील गगन है

रात सहम कर बाँध चली है खेमा

दूर क्षितिज पर सूरज लिए कफन है

दीवारें हैं कहाँ, कहाँ दरवाजा

घर का मेरे सब कुछ तो दरपन है

परबत ऊपर जब भी उछले नदिया

लगता गौतम छिना हुआ बचपन है


(8)




कुछ पल तो अपने आपको खुद से जुदा करें

आओ किसी के नाम पे हम भी दुआ करें

घर बार ज़मीं खेत रसोई तो बंट गए

चलिये हवा-ओ-धूप का भी फैसला करें

खुद हमने चुना जान के ये रेत का बिस्तर

जलता है जब बदन तो किससे क्या गिला करें

होंठों पे हमने तल्खियों की फ़स्ल उगाई

जाहिर है कैसे हँस के तुम्हें अलविदा करें

तारीख बदलना है महज़ लफ्जों का हुनर

आओ कि अपने नाम इसे सुनहरा करें

छिप छिप के तुमसे खत-ओ-किताबत हुई बहुत

बेफिक्र जमाने से चलो अब मिला करें


(9)




बिखरे बिखरे चेहरे लिख

उन पर ख़्वाब सुनहरे लिख

किसी कमाल की पत्ती पर

बूंद कहाँ पर ठहरे लिख

यहाँ थिरकती लहरें हैं

बहुत सफ़ीने गुजरे लिख

पड़ी सीपियाँ साहिल पर

मोती कितने गहरे लिख

मैला शब का अंचल है

रात कहाँ पर ठहरे लिख

पत्तों की पेशानी पढ़

कितने मौसम गुजरे लिख

सफ़ीने=नावें , पेशानी=माथा 



(10)



कुछ विषम सा गीत के सम पर हुआ है

फिर कहीं सुर ताल से बाहर हुआ है

घंटियाँ है चीखती सुनिए कथा यह

किस वजह से देवता पत्थर हुआ है

चीख कर तूफान ने चुप्पी है साधी

तब हवा मे मर्सिया अक्सर हुआ है

एक पत्ती डाल से टूटी है शायद

चूर मौसम किस कदर थक कर हुआ है

आग ने जाने उसे जाने उसे कैसा जलाया

आदमी वो अज़दहा जलकर हुआ है।

मर्सिया=शोकगीत, अज़दहा=ड्रैगन 




(11)




फूलों की हथेली पे अंगार रख दिये हैं

बच्चों की किताबों में हथियार रख दिये हैं

आकाश के फ़रिश्ते उतरें तो किस जगह पे

हर ओर तुमने झूठे अवतार रख दिये हैं

तहजीब फिर रही है हरमोश बन के बेहिस

घर के सहन मे जबसे बाज़ार रख दिये हैं

ये कौन सा चलन है स्वागत की आरती का

अक्षत के साथ किसने औज़ार रख दिये हैं

जागो तो नींद से अब बेआब खबरगीरों

पीले सफ़ों से भरके अखबार रख दिये हैं

हमसे भी है उन्हें अब नफरत की शिकायत सी

मैंने जो सच में भीगे अशआर रख दिये हैं

हरमोश = वेश्या, अशआर = शेर का बहुवचन



(12)




देख कर कुछ ख़्वाब में डरने लगे हैं

आदतन कुछ मंत्र से पढ़ने लगे हैं

कितने ज़्यादा ज़ख्म हम खाते हैं अक्सर

उससे ज़्यादा चोट हम सहने लगे हैं

सर कहीं दीवार से टकरा न बैठें

खौफ से घर छोड़ कर रहने लगे हैं

हैं अजब सहारा के ये रेतीले पर्वत

खुद बने थे , खुद-ब-खुद ढहने लगे हैं

क्या पता कल नाम लेवा हो, नहीं हो

खुद का तर्पण लोग खुद करने लगे हैं


(13)




जी रहीं हैं इक कंटीली बाड़ थामें औरतें

अध खुले खिड़की-ओ-दर की आड़ थामें औरतें

पंचहंथी  सूती में कैसे बच के रहती आबरू

खाक समझें ये ज़री के पाड़ थामे औरतें

इनसे रौशन है सदा बारात की रंगीनियाँ

चल रही जो रौशनी के झाड़ थामें औरतें

इस तरफ देखो, उधर जाओ, इधर मत हो खड़ी

जी रही हर रोज तिल का ताड़ थामें औरतें

है खुदाई फर्ज़ शौहर, बाल-बच्चे, रोटियाँ

फूँक रहीं चूल्हे में ये खिलवाड़ थामें औरतें


(14)




गर थोड़ी नमकीन ज़िंदगी हो जाए
हो थोड़ी तौहीन, ज़िंदगी हो जाए

तितली चिड़ियों जैसी थोड़ी परवाजें

कौन कहे शाहीन ज़िंदगी हो जाए

इतना भी मज़बूर करो मत साँसों को

तसलीमा नसरीन ज़िंदगी हो जाए

उजली काली धूसर मटियाली अक्सर

चल बाबा रंगीन ज़िंदगी हो जाए

रातों दिन बस चलना कैसा अब तो बस

हम नाचें और बीन ज़िंदगी हो जाए

शाहीन=बाज  




(15)




है दुआ ये किसी बददुआ की तरह

दर्द है ज़िंदगी देवता की तरह

कौन सिलता है खुशियों के ये पैरहन

क्यों लिबासे-खुशी है सजा की तरह

किसको तूफ़ान सी जिंदगी चाहिए

एक लम्हा मिले गर सबा की तरह

क्यूँ समाती है खुद में सभी को जमीं

जब बरसता है कोई घटा की तरह

आँख खोजा करे तुममे इक आदमी

जब भी आते हो मिलने खुदा की तरह

ज़िंदगी इक ज़हर और मीरा से हम

कृष्ण आओगे कब तुम पिया की तरह  



पैरहन=वस्त्र , लिबासे-खुशी= खुशियों के वस्त्र, सबा= ठंडी हवा।




(16)





किसी के गीत हवाओं को सुनाएँ जी भर

किसे की याद में हम आज नहाएँ जी भर

कहीं पे जोर से बारिश का उछालें पानी

किसी का अक्स सितारों मे बनाएँ जी भर

किसी का नाम लिखें हम हवा मे उँगली से

किसी शजर को ही झुँझला के हिलाएँ जी भर

लौट के जो नहीं आएगा उसकी राह तकें

गला के मोम हथेली को जलाएं जी भर

जहाँ पे दूर तलक हो न इक परिन्दा भी

वहाँ पे जा के किसी को दें सदायें जी भर

चलो कि रस्म मुहब्बत की यूं बादल डालें

किसी से इश्क करें, उसको हँसाएँ जी भर



(17)



इस कद्र जो अहसास की दौलत नहीं होती

नज़रों से मोतियों की ये निस्बत नहीं होती

लिक्खी है आस्माँ  पे किसने ऐसी इबारत

कागज़ पे जिसकी कोई किताबत नहीं होती

ताउम्र रखे आँख पे दुनिया ये किसी को

इतनी भी पुरअसर कोई शोहरत नहीं होती

अक्सर ही कहा करते हैं हँसकर ये समंदर

झीलों मे गुफ्तगू की रिवायत नहीं होती

कोई तो अब्र रेत के दरिया पे बरसता

दरिया को तिश्नगी की शिकायत नहीं होती

ऐसा नही के सानेहा गजब नहीं हुआ

ये और है की हमको ही हैरत नहीं होती

कैसे घड़ी थी घर से कदम हम ने निकाले

घर लौटने की कोई भी साअत नहीं होती

निस्बत=संबंध, किताबत=हाथ से लिखने का हुनर, 

अब्र=बादल, तिश्नगी=प्यास, लफ्ज-ए-अलविदा= विदा का शब्द
साअत=मुहूर्त, सानेहा=घटना।   
    


(18)




हर नदी जैसे दहाना ढूँढती है

आँख बहने का बहाना ढूँढती है

शाम ढलते रूहे-आवारा हमारी

जिस्म मे कुछ आबोदाना ढूँढती है

इक नज़र जबसे यहाँ पत्थर हुई है

उठ के गिरने का बहाना ढूँढती है

रात घुटने मोड़ती है सर्दियों की

इक अदद कंबल पुराना ढूँढती है

वाईजों के खौफ से सहमी हुई है

अब गजल कुछ शायराना ढूँढती है

वाईज=बुद्धिमान



(19)


और थोड़ा कमाल हो जाएँ
रेत से अब गुलाल हो जाएँ

लम्हे साअत सा कोई जीना है
आओ तो माहो-साल हो जाएँ

है वो अहसास क्या हकीकत में
इससे बेहतर ख़याल हो जाएँ

कब से खुलते रहे जवाबों से
इक दफा तो सवाल हो जाएँ

हम को खुद ही पता नहीं, कब हम
किसके दिल का मलाल हो जाएँ 



(20)



जो नदी बरसात में चढ़ती नहीं है
मत कहो सैलाब की प्यासी नही है

हम अँधेरों से निकल आए तो देखा

रोशनी की उम्र भी लंबी नहीं है

इस कदर बदनाम होने का नफ़ा है

कोई तुहमत अब हमें चुभते नहीं है

तुमने मांगी मौत की मेरे दुआ, पर

कोई साजिश तो कहीं दिखती नहीं है

दूर परबत ऊँघता है अलसुबह जो

ज़िंदगी शायद वहाँ पहुंची नहीं है

कब से बेटी चाँद की ज़िद पर अड़ी है

सोचती है ज़िद कोई मंहगी नही है



(21)





आज सागर बूंद बन कर ढल रहे हैं 
और क़तरे बन के दरिया चल रहे हैं 

क्या किसी ठहराव का संकेत है यह

हम निरंतर और निरंतर चल रहे हैं

शब्द की कोई परिधि होती नहीं पर

शब्द साँचों मे निरंतर ढल रहे हैं  

मंजिलों तक हम कभी पहुँचे नहीं हैं

पर हमेशा मार्ग से अविचल रहे हैं।

तुमने हाथों से लिखी तारीख लेकिन

हम उन्हें कंधों पे ढोकर चल रहे हैं  



(22)



अपना कद यूँ बड़ा करो बाबा 

सब से हँस के मिला करो बाबा

जब भी थक जाएँ ये कदम चल के

बन के दरिया बहा करो बाबा

यूँ हर इक बात मानना न भला 

कोई ज़िद भी किया करो बाबा

जख्म गर खुद से खुद को लग जाए

खुद से छिप कर सिया करो बाबा

हाल पूछो तो अब जरा आकर 

ज़ख्म थोड़ा हरा करो बाबा

होश आए न लौट कर वापस

जब पियो यूँ पिया करो बाबा

एक साअत को बेवफा होकर

हक नमक का अदा करो बाबा



(23)





रोशनी की इक नदी में डूब जाने के लिए
चाहतें लड़ती हैं अक्सर गुनगुनाने के लिए

आज फिर चुभने लगीं ओढ़ी हुई खामोशियाँ

आओ फिर बैठें कहीं किस्से सुनाने के लिए

झूठ के रँग एक चुटकी ले लिए तो क्या खता

चाहतों की साँवली सूरत सजाने के लिए

चंद कतरे धूप के भी मिल गए तो जाँ फिदा

कौन कहता चाँदनी के शामियाने के लिए

वक्त के दरिया में डूबी ये नजर वादे लिए

चंद पल आयेंगे इसमे डूब जाने के लिए

कुछ गिले शिकवे, खुशी कुछ और कुछ नादानियाँ

और क्या लगता है हमको मुस्कुराने के लिए

  

(24)


है जो कई मत कंवल कहिए तो साहिब
अब जरा आदत बदल कहिए तो साहिब

हो गए जालिम अगर सब पाक दमन

बेहिचक गंगा का जल कहिए तो साहिब

ख्वाबगाहें, रोटियाँ, तालीम-तमगे 

एक मीठी सी गजल कहिए तो साहिब

नोच कर खुद के परों को है बनाया

घोंसले को अब महल कहिए तो साहिब

आपकी कुर्सी है तो फिर खौफ कैसा

इक दफा पहलू बदल कहिए तो साहिब   



(25)



ज़िंदगी की दौड़ मे रफ्तार बनना सीखिये
कीमतों का दौर है बाज़ार बनना सीखिये 

खुद-बख़ुद आ जाएगा तब वज़्न-अंदाजो-अरूज़
आप पहले खुदबख़ुद अशआर बनना सीखिये 

झूठ हैं इक बदमजा इस जा दुआएँ आपकी
हो सके तो दर्द में बीमार बनना सीखिये 

कौन कब किसकी छिपाता है यहाँ बेपर्दगी
ढाँकने को जिस्म खुद दीवार बनना सीखिये 



(26)



रात के साये मे परछाईं कहीं  गुम हो गई
खुश रहे तन्हा तो तन्हाई कहीं गुम हो गई

आपकी संजीदगी का कहर कुछ ऐसा हुआ 
बात दिल की लब तलक आई कहीं गुम हो गई 

उठ रहे बेहिस बगोले रेत के अब हर तरफ
ओस में भीगी वो पुरवाई कहीं गुम हो गई 

नींद मे भी अब उसे दिखती हैं तो बस खाइयाँ
ख्वाब की दौलत वो ऊँचाई कहीं गुम हो गई

क्या करे चारगरी, लाशें हैं ज़िंदा सब यहाँ
चुप मसीहा है मसीहाई कहीं गुम हो 

फूल पर बैठी हुई तितली थी जैसे हर खुशी
जब मिली मिलते ही हरजाई कहीं गुम हो गई 


संजीदगी=गंभीरता, चारागरी=उपचार,
हरजाई=बेवफा   






(27)


मोतबर सा क्या दिलासा और भी कुछ है यहाँ
क्या सिवा मेरे शनासा और भी कुछ है यहाँ

तुम असूलों की लड़ाई शौक से कह लो इसे 
है यकीं हमको दबा सा और भी कुछ है यहाँ 

अलसुबह तो आस्माँ ये साफ था जैसे गुहर 
अब मगर दिखता धुआँ सा और भी कुछ है यहाँ

गिर चुका पर्दा, मगर बैठे हुए हो अब तलक
क्या कोई बाकी तमाशा और भी कुछ है यहाँ 

साये मे इस शहर के जीने को दिल मजबूत कर
सोचना मत ज़िंदगी सा और भी कुछ है यहाँ 

मोतबर=विश्वसनीय, गुहर=मोती 
शनासा=परिचित   





(28)


कुछ इस तरह से घर की बुनियाद रखी जाए
पत्थर की जगह माज़ी की याद रखी जाए

कुछ और अभी जलसे होने को हैं शहर में
कुछ और अभी बस्ती ये शाद रखी जाए

आते हैं लौट कर भी गुजरे हुए ज़माने
पर शर्त है कि चाहत आबाद रखी जाए

अब और जिएंगे हम बस अपने तरीकों से
आओ खुदा के दर पे फरियाद रखी जाए

फिरते हैं लेके क्यूँ हम बस जहनो-दिल यजीदी
इब्ने-अली की भी तो कुछ याद रखी जाए     

  
माज़ी=अतीत, शाद=खुश, 
इब्ने-अली= हज़रत इमाम हुसैन 
यजीद = खलीफा यजीद 




(29)



अगर पागल रवानी है
तो क़श्ती भी दीवानी है

जुनून है तेरे सर गरचे

तो इस सर भी जवानी है

समझ मत बस इसे लम्हा  

यही पूरी कहानी है

नए मेहमान तो है घर में 

मगर चादर पुरानी है

खला में ढूंढती है कुछ  

हुई बिटिया सयानी है

वो अब खामोश रहती है

कभी थी आग, पानी है 

ये ऊला है ज़रा मुश्किल

कहो क्या कोई सानी है?


खला=शून्य, ऊला = शेर का पहला मिसरा 

सानी = शेर का दूसरा मिसरा  



(30) 




हर साँस ज़िंदगी की शिकायत से बाज़ आ
हर लम्हा-ओ-साअत की खिलाफ़त से बाज़ आ

आ बाज़ आ अगरचे इस आदत से बाज़ आ

हर बार बिखरने की नज़ाकत से बाज़ आ

साये मे दरख्तों के उगा है तो सब्र कर

बोसा फ़लक पे करने की चाहत से बाज़ आ

मुद्दत के बाद आई है रुत चाहतों की ये

मौसिम का उठा लुत्फ़, सियासत से बाज़ आ

मासूमियत से तूने मेरा घर जला दिया

हंगामाखेज अपनी शराफत से बाज़ आ

माकूल रुख नहीं है हवाओं का सफर को

तू लफ़्ज़े-अलविदा की हिमाकत से बाज़ आ

लिखना है तो लिख दिल पे उनके हर्फे-इल्तिजा

यूँ कागजों पे ख़तो-किताबत  से बाज़ आ  

बोसा= चुंबन  

लम्हा-ओ-साअत = घड़ी और मुहूर्त 
लफ़्ज़े-अलविदा = विदाई का शब्द 
हर्फे-इल्तिजा  = प्रार्थना का शब्द 
ख़तो-किताबत = पत्र-व्यवहार 



(31)




अगर फ़ितूर ये होता उतर गया होता
छान कर ख़ाक-ए-सहरा मैं घर गया होता

है शुक्र मैं भी जला जब जला शहर मेरा

वर्ना इल्ज़ाम तो मेरे ही सर गया होता

अगर मैं आँख में उसकी न उतरता गहरे

उसके अंदाजे बयां से तो डर गया होता

उसी ने प्यार से शायद न पुकारा मुझको

वक्त भी होता मैं गरचे ठहर गया होता 

खामखाँ उसके लिये आंधियों  के नाज़ सहे

वो तो तिनका था हवा में बिखर गया होता

तुम्हीं को आईने रखने का फन नहीं आया

वो खुद ही शीशे मे आकर उतर गया होता



(32)





कब तक चलें जुदा ये अंदाज़े बयाँ  लेकर
अब हम भी चल रहे हैं औरों की जुबाँ  लेकर

सोहबत है ये इन्साँ की मौसम बचे तो कैसे
आई हैं बहारें भी मुट्ठी में ख़िज़ाँ लेकर 

लौटे शहर से जब हम एक दूर के सफर से
रहना पड़ा हमें खुद औरों का मकाँ  लेकर

बिस्तर की रेत क्या है चुभती है तो चुभ जाए
जब नींद चल रही हो खुद तीरो-कमाँ लेकर 

जो खौफ का पारा है ऐसे नहीं झलकता
देखो अगर उसे तो साँसों के निशाँ  लेकर


(33)


जिसने खुद को नींद में चलते देखा है
यकीं का चेहरा खौफ में ढलते देखा है

रात के रहबर ख्वाबों को सुई धागे से 
फटी एड़ियाँ सुब्ह् को सिलते देखा है

लेकर शोहरत और बुलंदी इठलाते 
सूरज को हर शाम पिघलते देखा है

जाने क्यूँ ये शहर है सहरा, सबने तो  
रगों मे इसकी नदी मचलते देखा है

कुहरे से ठिठुरी गज़लों को सर्दी में
सुबह सबेरे काम पे चलते देखा है 

बादल की छतरी ओढ़े हर बारिश में 
घर को रफ्ता रफ्ता जलते देखा है

अक्सर होश में अपने होश को जाम लिए 
मैंने गिरते और फिसलते देखा है 



(34) 



ताकत है तो लगा हवा पर पहरा तू
हिकमत है तो दे दरिया को चेहरा तू

ज़ख्म लिए अरसे से बेहिस घूम रही
दे चारा कुछ और नदी को ठहरा तू

पैमाँ दिल की ताकत तुझसे क्या होगी
घाव लगा ले चाहे जितना गहरा तू

तेरी मेरी वुसअत में है फर्क ज़रा
मैं हूँ जिंदा बस्ती मुर्दा सहरा तू

माना दरिया तूफ़ानी है तू लेकिन
खल्क मे उसके है अदना सा कतरा तू

राज तेरा अब सन्नाटे भी खोल रहे
लाख चढ़ा ले चेहरे पर अब चेहरा तू

हिकमत= तरकीब, बेहिस=संवेदना विहीन 
वुसअत=विस्तार 


(35)



रफ़्ता रफ़्ता घुस गया कोई शहर इस गाँव में
बन गई जबसे वो पक्की रहगुज़र इस गाँव में

डाकिये की राह अब कोई यहाँ तकता नहीं 
फोन के बजने लगे जब से बजर इस गाँव में 

अब न पहुना को खिलाते लोग गुड चिवड़ा दही
चाय करते प्यालियों मे सब नज़र इस गाँव  में 

शाम ढलते लोग अब चौपाल तक आते नहीं
टीवीयों से लोग रखते अब खबर इस गाँव में 

खो गए चेहरे शनासा भीड़ के सैलाब में 
आदमी ही आदमी आते नज़र इस गाँव में   

उड़ चले बेबस परिंदे खंडरों की खोज में
कट गए जबसे वो बूढ़े सब शजर इस गाँव में  

शनासा=परिचित, शजर=वृक्ष


(36)


कब तक यूं तेज़ाब गिरेगा फूलों से
कब तक बच्चे बहलेंगे तिरशूलों से

मरहम मरहम कहते ये नासूर हुए

सिल कर देखो ज़ख्म जरा अब शूलों से 

लंगर क्या जाने राहों की मुश्किल को

बेहतर है , यह प्रश्न करो मस्तूलों से

हर बारिश मे सोचा करता है सावन

गूँजे शायद अब किलकारी फूलों से 

मीठे सपनों की भी हद होती है क्या

तुम को क्या गर तोड़ें आम बबूलों से 

सर के बल भी दुनिया में इक मंज़र है

हटकर भी तो सोचो कभी असूलों से


(37)




सुर दे दो तुम इनको अपनी मीठी सी शहनाई में
मैंने ये जो लफ़्ज़ लिखे हैं रातों की तनहाई में

पेड़ बहारों में खुश हैं तो उनसे मत पूछो ये प्रश्न
ज़र्द हुए हैं पत्ते कितने मौसम की अंगड़ाई में 

माँग रहा हूँ दुआ खैर की कैसा असगुन सुबह सुबह
आ बैठे हैं चंद कबूतर सुबह सुबह अंगनाई में 

वह जंगल की आग नहीं है फूल महज़ हैं टेसू के
लगता है कुछ धुन्ध जमी है आँखों की बीनाई में 

नाव उसी की नदी उसी की तू भी है खुद उसका ही
मांग रहा जिससे तू कीमत पानी  की उतराई में 

बीनाई=दृष्टि 
  

  (38)




चुराकर वक्त की मुट्ठी से हम लम्हात लाये हैं
बड़ी मुश्किल से खातिर आपकी सौगात लाये हैं

उन्होने बंद कीं आँखें कि पानी का हुआ गिरना
उन्हे है फख्र रब से छीन कर बरसात लाये हैं 

अजी वो रहनुमाँ होंगे खुदा वो हो नहीं सकते
तुम्हारे नाम पर वो माँग कर खैरात लाये हैं

हमारे खूँ की रंगत तो यकीनन एक है, लेकिन 
अचानक आप क्यूँ लब पे ये मीठी बात लाये हैं

वज़न सूरज का कंधों पे हमारे पहले क्या कम था 
जो अब क़िबला हमें बोझिल उनींदी रात लाये हैं















शनिवार, 29 सितंबर 2012

नई कविता - दुःख

जी भर कर
सींच भी नहीं पाया था
आंसुओं से जिसे
बीजने के बाद,
ना जाने कैसे
जी गया है एक दुःख
अपने ही हाथों
सिरजा हुआ

आज अचानक
आ खड़ा हुआ है सामने
शरारत भरी
मुस्कान के साथ,
दरवाजे की
सांकल पकड़े,
एक पैर थपकते
ज़मीन पर,
अनजाने नम्बर से आई
किसी बरसों पुराने
दोस्त की
आवाज़ की तरह

पहचान लिया है
उसने मुझे और
मैंने उसको,
और बस
घुलने लगा है वह
हवा में
अपनी आमद की  तरह
अचानक,
मुझे छू लेने के बाद

बस इतना ही पर्याप्त था जैसे
उसकी तृप्ति के लिए,

न जाने क्यों इन दिनों
हो गई है रातों की नींदें
आसान

हो गई है खत्म
एक लगातार रहने वाली
बेचैनी

अब नहीं भागता हूं
मैं सपनों में बदहवास
बेमकसद
बेतहाशा,

इन दिनों
बहुत गहरी नींद
सोता हूं मैं।


पद्मनाभ गौतम
आलंग, अरूणाचल प्रदेश
20.09.2012

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कुछ नई कविताएँ ...


दुनिया से अलग

सात बहनों के
कुटुंब की है जो
जीवन रेखा,
इन दिनों
लोहित है नाराज़।

पाँच दिनों से
अँधेरे  में हैं हम,
और कोने में पड़ा  इन्वर्टर
बता रहा है कंधे उचका कर
हमारे लिए
विज्ञान की सीमा।

नाराज लोहित ने भी तो
दिखाई है हमे
प्रकृति की सीमा ही

बंद है
इन दिनों डिब्रूगढ -आलंग सड़क
और हैं बंद
रसद की गाडियाँ ।

केवल लाही पत्ता
और केले के फूल
पक रहे हैं
सब्जियों के नाम पर

फोन की सारी लाईनें पड़ी हैं बेकार

बमुश्किल मिल पा रही हैं
बाहर गाँव की खबरें,
इडियट बॉक्स
पड़ा है कोने में
खामोश,

इन दिनों
हम दिन रहते
निपटा लेते हैं सारे काम,
जल्दी खा पीकर
घुस जाते हैं
कम्बल में साँझ को ही,

मोमबत्तियाँ लड रही हैं
हमारी खातिर अँधेरों से

ढेर सारी बातें
करते हैं हम
इन दिनों,
करते हैं बातें
उन औरतों की
जिन्होंने करके
लालटेन के उजाले में
कपड़ों पर तुरपाई
पाल लिए
अनाथ बच्चों के
पेट,
याद आ जाती है
बरबस
निरूपाराय के
होंठो  में दबे
सुई और धागे की

बच्चे जान रहे हैं
आदिमानवों के बारे में
कि किस लिए
और कैसे जलाई होगी
उन्होंने
पहली बार आग

आज भी
खा पीकर
घुस गए हैं हम
बिस्तर में,
पत्नी पास बैठकर
गा रही है कोई
अजूबा फिल्मी गीत,
और चिढ़ाती है लेकर
पूर्व प्रेयसी का नाम

हँस रहा हूँ हौले हौले
इस शरारत पर,
यह सोचते हुए कि ,
सचमुच
कितने खूबसूरत हैं ये दिन

ये अँधेरों के दिन

कभी कभी अच्छा लगता है
रहना
दुनिया से अलग
अँधेरों  के साये में।

आलंग
अरूणाचल प्रदेश
२५.०९.२०१२




किंडरजॉय

किन्डरजॉय के लिए
मचल गई है बिटिया
दुकान के सामने,
और मैं समझा रहा हूं उसे
पाँच रूपए के
सामान के पीछे
पच्चीस की
मार्केटिंग का गणित,
कि खरीद ले वह
इसी दाम की
कोई और चाकलेट
जिसमें हो
ईमानदारी से
टैक्स भरकर
कमाए रूपए की
पूरी कीमत वसूल ।

दुकान पर बैठी महिला
करती है
मुझ पर
कटाक्ष,
कि नहीं पूछूँ मैं      
एक चॉकलेट का दाम,
जिसकी कीमत
पैसठ रुपए सुनकर
हो सकता है
मेरा हार्ट फ़ेल

"आप लोग तो हमेशा
कम दाम की चीज़
खोजते हैं ना"।

सुनकर  हूँ
अवाक
कि किस तरह
धो दिए गए हैं
हमारे दिमाग,
कि रह गया है
हैसियत का पैमाना
सिर्फ और सिर्फ
अंधाधुंध खर्च।

क्या बताऊँ उसे
कि इस तरह
सिखा रहा हूँ मैं
विपरीत परिस्थितियों में
जीने की वह कला,
जो शायद
एक गरीब मास्टर का
आत्मज ही
सिखा सकता है
अपनी आत्मजा को।

क्या बताऊँ कि
सीख रही है मेरी बेटी
उस देश मे जीने का हुनर,
जिसने मूर्खोचित गर्व के साथ
कर लिया है
अमरीका से आयात
कोक, डॉनटस और
पिज्जे की
होम डिलीवरी का शौक,
लेकिन बदनसीब
उनसे ही
नही सीख पाया
साढ़े सात सौ डॉलर
प्रति माह की
सोशल वेलफेयर स्कीम

नही कहूँगा जुमला
(कविताओं के लिए बासी)
कि आज भी
नगरपालिकाओं में बैठे
सुनइया मामा
चट कर जाते हैं
वृद्धा पेंशन के
डेढ़ सौ में से
पचहत्तर रूपए।


बस चुप हूँ मैं
और
कर रहा हूँ महसूस
उस औरत के भीतर घुसे
प्रेत को
जो घुस जाना चाहता है
मुझमें भी
गड़ा कर मेरी गर्दन
पर दाँत

और अब  

फेर ली हैं
मैंने अपनी आँखें

शुक्र है अभी तक
नहीं धुला है इस क़दर
मेरा दिमाग
कि बताने लग जाऊँ
उस औरत को
अपनी पगार
और अपनी खरीदने की
अगाध ताकत

पद्मनाभ
आलो, अरुणाचल प्रदेश
19/09/2012

पूर्व प्रकाशित कविताएँ......

कुछ पुरानी पत्रिकाएँ जो अरुणाचल मे मिल पायीं , उनमें प्रकाशित कविताएँ -

पोखरी खदान मे कोयला बीनते मारे गए बच्चे के लिए. 
(प्रगतिशील वसुधा-66 जुलाई-सितम्बर 2006)

लड़ रहा था  
वह योद्धा 
उस पोखरी खदान मे 
भूख, समय 
और सर पर छतरी बन कर 
तने ईश्वर से, 

कई लड़ाइयाँ एक साथ 

उठा रही थीं हथेलियाँ
एक एक मुट्ठी कोयला, 
हर एक खेप मे 
खिल खिल जाते थे 
कटीली बाड़ के पार खड़े 
झुराए धूधुर सने 
चेहरों की नन्ही नन्ही
आँखों में गेंहुअन सपनों के फूल,
हरियरा उठते उनके चेहरे
हर खेप के बाद संचय को देख कर,
उन्हें नहीं था इल्म इस बात का
कि उनके सर पर 
कभी भी बरप सकता है 
ड्रेगलाइन का कहर,
और इसका कि ईश्वर भी फुला रहा है नथुने 
उनके इस दुष्कृत्य पर.
ड्रेगलाइन 
जो ज़मीन की परतें उखड़ता-उधेड़ता 
नाच रहा था शेरनाच,
अपने नाखूनों से मिनटों मे उसेलता 
कोयले की परतें, 
जमाया था जिसे 
कंधे पर ढो ढो कर 
पुरखिन नदियों ने 
हजारों सालों में 
पुरखौती हांडी की तरह
आनेवाली संततियों के लिये, 
डोह रहा था जिसे  
मुठ्ठियों मे भरकर 
उन नदियों का नन्हा वारिस. 
अचानक टूट पड़ा 
वह गर्वीला दानव 
उस दुर्बल काया पर
लेकर हजारों टन मिट्टी का अंबार, 
क्षण मे हो गई तहस नहस 
उन मलिन चेहरों की दुनिया 
मनसबदार चीखे 
ट्रेसपासर था, मारा गया
खाकी वर्दी ने कायम किया मर्ग

लेकिन सब इतने बेदर्द नहीं थे 
उस वक्त मिट्टी रो रही थी चुपचाप
हवा थपथपा रही थी उसके नन्हें गाल 

और ईश्वर , 
वह तो दबे पाँव गायब 
हो गया था कभी का,
बगल में दबाये अपनी छतरी 


                                           **********************************
                                           ********************************** 
                                           **********************************

सुआगीत   (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

कहाँ से लाती हैं
अपनी आवाज में
इतना दर्द और कंपन
ये सुआ गीत गाती
लड़कियाँ,
सुन कर जिसे ठिठक जाते हैं
राहगीरों के पैर,
काँपते है दरख्त
और
सिहरती है हवाएँ,
गायें चरना छोड़ कर
निहारती हैं गौर से,
बछड़े चुहुकते हैं
पेनहाए थानों को
और अधिक तेजी के साथ,
हरहराकर बहता गेज का पानी
एकाएक जैसे हो जाता है
खामोश
हर आँख खोजने लगती है
आवाज़ की दिशा
उतार जाता है यह
सम्मोहक क्रंदन
कानों से होते
शरीर के रोम रोम में
जब गाती हैं लड़कियाँ
थपका थपका कर  तालियाँ
'मोला तिरिया जनम झन देय
मोर सुगना'
ओ सीता माँ
आखिर कितना लंबा चलेगा
बार बार परित्यक्ता होने का
वह अविवेक पूर्ण अभिशाप
जो दिया था तुमने
अपनी ही बेटियों को
होकर कुपित
उनकी किसी लड़िकहुरहुरी पर
क्या तुमने खुद भी
सोचा था इसका दुष्परिणाम
कि आज तक तलाशती हैं
लड़कियाँ
गाकर सुआगीत
अपनी शापमुक्ति का उपाय
कब दूर होगा
यह करुणविलाप
जो बसा हुआ है
वनपुत्रियों के कंठ मे
हज़ारों वर्षों से
शूल की तरह
तुम ही बताओ
कि कब होगा
तुम्हारी अपनी बेटियों का
अहिल्या की तरह उद्धार

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जंगली धान  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

जारी है लड़ाई
महमहाती 
वर्णसंकर धान की
फ़सलों के बीच उगी 
जंगली धान के 
सफाये की,
उग आती है जो 
न जाने कहां से
बिना बुने छींटे हर साल
और चूसती है धरती से 
ऊँची नस्लों का हिस्सा,
वे नस्लें जो
तैयार हुई हैं बरसों की
मेहनत और शोध के बाद,
देती हैं जो
चौगुनी पैदावार
और पछाड़ती हैं स्वाद में
बिशुनभोग और जीराफूल को
और यह बेशर्म
जंगली धान
जिसमें न स्वाद 
न गंध
बस करती है नष्ट
सुकुमार नस्लों की 
पैदावार। 
मुई इतनी बेईमान 
कि बिना बीज आये
कर पाना मुश्किल है
दोनों के बीच कोई फर्क,
छूते ही झर जाती है
कम्बख़्त खेतों में
और फिर आ जाती है
बिना बुलाये अगले साल। 
छपा है अख़बार में
कि अब खोजी जाएंगी
नयी नस्लें
जिनकी पौध होगी
बैंगनी और नीलाभ,
हो जाएगा जो तब आसान 
छाँटना
इस अवाँछित नस्ल को
पूछती हैं अख़बार पढ़ती माँ 
मुझसे यह सवाल
कि अगर न रहेगी 
यह जंगल की धान 
तो कहां से आयेगा
हरछठ में पसही चावल
कैसे होगा व्रत का पारण/
भला जोत बो कर उगाये
धान से भी तोड़ेगा कोई 
हरछठ का उपवास
नहीं बूझ पाती माँ इतना
कि मिटाया नहीं जाएगा
जंगली धान का अस्तित्व 
गड़हे-गढ़नियों और पोखरों 
की कीच से
और नहीं बताना चाहता
मैं उसे यह बात 
कि करती है वह 
जिस पसही से पारण
वह उगाया जाता है
फार्म हाउसों में
जंगली धान के नाम पर 
जोत बो कर
वर्णसंकर धानों के समान। 

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दरख़्त   (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

एक एक कर कटते गए
आंगन के सारे दरख़्त
किसी न किसी हादसे के बाद

वहाँ उस ओर 
जिसे कहते हो तुम दख्खिनघर
कभी वहां पर
झूमता था ब्यौहार
बनाया था जिस पर
भाई ने मेरे लिए
जोड़ कर पटरे हवामहल
और
जिसके गोंद से बनी पतंगों से
मिनटों में काट देते थे हम 
सिंचाई कॉलोनी के बूट छाप लड़कों 
की चमचमाती बाजारू पतंगें।
उधर था बारहमासी सहिजन
बाँटती थी जिसे माँ पास पड़ोस से लेकर
सैकड़ों मील दूर बसी बहिनों के घर तक ,
थकती नहीं थी माँ
अपने सहिजन के स्वाद के गुणगान से,   
पूरब के दरवाजे की जगह थी
बिना बीज की बीही
देर रात जब थक जाती थी माँ
सुना कर मुझे और बहन को 
कहानियाँ
तो उलझा देती थी इस सवाल पर 
कि कहो कैसे उगी होगी
उसकी सबसे पहिलीं गांछ,
हमेशा सुला देती थी माँ
बड़ी आसानी से 
उलझाकर हमें 
इस कठिन पहेली में
पास ही था सीताफल
उसके बड़ी बडी आंखों वाले फल
बुलाते थे हमें इशारों से, 
जब कभी निगल जाते थे 
गूदे के साथ उसके बीज
तो डराती थी माँ
कि अब उगेगा पेट के भीतर से
सीताफल का बहुत बड़ा झाड़, 
कट गए एक एक कर 
बचपन के संगवारी
शीशम, गुड़हल, मीठीनीम
और अहाते पर
जबरन उग आया पीपल
आज कट रहा है अशोक,
रोपा था जिसे माँ ने
अपने हाथ से, 
सींच कर पीतल की 
टुटही बाल्टी से पानी
रोज नापती थी
वह उसकी बाढ़
और पढ़ती थी
'राई, नोन भटकटइया के झूला परे' 
का अमोघ नजर काट मंत्र,
करती थी माँ उसके नाम पर 
इतना एतबार
कि करवाये उसने घर के सारे ब्याह
इसी असोक को मानकर
शादी का मड़वा,
आज कटवा रही है माँ
उसी अशोक को
रोकता हूँ उसे तो
बिना कुछ बोले
निहारने लगती है
आसमान
कितनी वहमी हो गयी है माँ
पिता की मृत्यु के बाद
कि दिखती है उसे
हर दरख़्त की छाँव मे
मनहूसियत
और इसी सुब्हे पर 
कटवाती जाती है
आँगन के दरख़्त
कि शायद हो जाएँ कम 
उसकी दुश्वारियाँ 
इस कम्बख़्त छाया के 
हटने के बाद

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टोना  (कृति ओर,  जनवरी-मार्च 2005)


तनिक भी नहीं लगती थीं अभद्र
तुम्हारी घुटनों तक धोती
और खोखराए धूल सने पाँव,
फबते थे तुम पर
तेल चभोके बाल,
उनके बीच 
मुश्किल से से राह बनाती
अनगढ़ मांग और 
लापरवाही से भरा
पीला सेंदुर,
तुम्हारे कठिन परिश्रम
के कारण बहे 
पसीने की हींक से
महक जाती थीं हवाएँ,
नहीं था बिल्कुल भी अश्लील 
तुम्हारा उन्मुक्त आचरण,
चलना बेफिक्री के साथ
डालकर प्रेमी के 
हाथों में हाथ,
नोचा-चोंथी, ठिठोली
और झगड़े,
किसने कहा था कि
लगता था फूहड़
तुम्हारी देह पर गुदा गुदना,
वह तो था
तुम्हारे सांवले सौंदर्य का
अद्भुत श्रृंगार
इस लोक से उस लोक तक
साथ निभाने वाला
तुम्हारा दैविक अलंकार,
सुनकर झूम जाती थीं दिशाएं
सुनकर तुम्हारे
’चंदैनी गोंदा’ और
’पियर लुगरा वाली’ के गीत, 
दरअसल कहा जाए तो 
अश्लील है यह
तुम्हारा नया रूप ही,
यह चुन्नटों वाली साड़ी
और नाप तौल कर
रखे जाते कदम
यह छिपाकर निकाली हुई मांग,
और स्टिक से लगाया सिंदूर,
टाल्कम की खुशबू
और गिलट के जेवर
नही लगते दिलकश
तुम्हारे होंठों से निकले 
सिनेमा के गीत,
तुम्हारी पनियाई
निश्छल आंखों में 
सिमटी रहतीं थीं
कितनी अद्भुत कविताएँ
जब तक नहीं जानती थीं वे
यह फर्क
कि किस तरह गिरा और उठा जाता है
जरूरत के हिसाब से
जानती हो,
तुमसे तुमको ,
हाँ तुमको ही
छीन लिया है,
तुम्हारे इस नए अंदाज़ ने
ओ रमदइया के बैगा
तुम क्यों हो ख़ामोश,
निकालो तो बाहर
इस उल्टे पल्ले की चुड़ैल को
जो मार रही है
हमारे गाँव घर की
बेटियों की मासूमियत पर
भयंकर टोना। 

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कुदरगढ़  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

पैरों में छोटे छोटे
घुंघरू छुनछुनाते
चढ़ता है छोटा सा मेमना
कुदरगढ़ की थका देने वाली
खड़ी चढ़ाई
बिना रूके-बिना थके
लगातार,
हाँफने 
लगते हैं इन्सान
और थक कर बैठ जाते हैं
सीढि़यों पर,
बताता है एक सयाना
श्रद्धा के साथ सिहरते हुए
कि कहीं तो है कोई ताकत
जो बताती है रास्ता
इन मेमनों को,
तभी तो वे भटकते नहीं हैं रास्ता,
और लौटकर
वापस भी नहीं आते,
पहुँचते हैं सीधे
बलिवेदी पर
नहीं बढ़ते उससे आगे
एक रत्ती
और उस ओर तो कदापि नही
बहकर समाती है जिधर
बलि के बाद बहती उनकी रक्तधारा,
और 
जहां रखी जाती हैं
सम्भालकर
उनकी देहें और कटे हुए सर
देवी मां के प्रसाद स्वरूप

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दुविधा  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)


गोष्ठी मे
चले लंबे विमर्श के बाद
निकला हूँ बाहर
घर वापस जाने के लिए
अभी अभी बूझी हैं
ग्लोबलाइज़ेशन और
उपभोक्तावादी संस्कृति से
उपजी तकलीफें।
निकला हूँ बाहर
सीख समझ कर
बाज़ार की साजिश
स्टेशन पहुँचने से पहिले
देखकर बाज़ार
याद आती हैं
पत्नी की फरमाईशे
फॉ,लैक्मे और वूडू के
नेलपेंट , स्प्रे और पाउडर
और बेटे की जिद
कि इस बार ला ही देना
रायपुर से बैटरी से चलने वाली
चाइना मोटरसाइकल।
अगर नहीं ले जाता हूँ
तो घुसने न देगा
वह छुटका
मुझे घर के भीतर ही,
एक पैर मुड़ता है
बाज़ार की ओर
और एक पैर
स्टेशन की जानिब
हथेलियाँ जाने क्यों
रगड़ रही हैं
खादी के कुर्ते की आस्तीनों को,
ओह यह दुष्ट रेल का इंजन
बजाकर जल्दी से सीटी
बुला क्यों नहीं लेता
मुझको अपनी ओर।

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निर्वात  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

कहोगे तुम अगर 
तो बुहारकर साफ
की जा सकती है
तुम्हारे आसपास की
यह ज़मीन
किन्तु अगर तुम
यह जिद करो 
कि बचने न पाए
धूल का एक भी कण
तुम्हारे इर्द गिर्द
तो इसे तुम्हारा
भ्रम ही समझो,
ठीक है कि ढंग से 
साँस नहीं ले पाते हो तुम
गर्दो-गुबार के बीच 
और शायद
तुम से अच्छा कोई न समझता हो
सफाई का मतलब
नामुमकिन है यह काम,
क्या तुम स्वयं
यह नहीं जानते
कि कहाँ नहीं 
रहती गर्द?
हाँ, बिल्कुल ठीक
निर्वात ही है 
इसका जवाब
और क्या तुम खुद भी
नहीं समझते
निर्वात में सांसे
लेने का मतलब

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सड़ांध  (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)

सभी जानते हैं कि
खुली हवा से ज्यादा
सुखकर नहीं है
साँस रोक कर पानी में 
डुबकी लगाना
फिर भी
फेफड़े भरकर
ताजी साँस लेने की जगह
डूब जाते हैं हम
बन्द कर आंख और कान
तालाब की गहराई में
जहाँ है केवल
सड़ांध मारती कीच और 
अकबकाहट
फिर भी जितनी ज्यादा देर 
तक रहते हैं
इस घुटन में
उतने ज्यादा गर्वित 
होकर बाहर निकलते हैं 
ताजा हवाओं के बीच
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कस्बे की दुनिया  (काव्यम्,कोलकाता,सितंबर-अक्टूबर 2004 अंक)


सिटी ऑफ हारमनी के देशी संस्करण की तरह
चल रही है कसबे की दुनिया उसी सालों पुराने ढर्रे पर 
बदस्तूर

भली सुबह बीच जाती हैं दूकानों की सीढ़ियों पर
शतरंज और लूडो की बिसातें,
सड़क से गुजरते राहगीर खिलाड़ियों को घेर कर
बदने लगते हैं शर्तें
और इस चक्कर मे भूल जाते हैं
सारे जरूरी काम

लड़कियां खोजती है
ब्यूटीपार्लर जाने के लिए माँओं का साथ
और भिनक ही पड़ती हैं सुनकर
सब्जी बाज़ार से सब्जी लाने का नाम

चांडालचौक पर शराब पीकर बमकता है सुखना
सुनाता है कालरी के एक-एक भ्रष्ट अफसर को
भरपेट गालियां
पूरी गंभीरता के साथ शामिल हो जाती है
इस पराक्रमोत्सव में
मजदूरों के निकम्मे लड़कों की खलपट सेना

जब भी घटती है बारिश मे घुलकर
लगभग अदृश्य हो चुके राष्ट्रीय राजमार्ग पर
कोई दुर्घटना
उमड़ पड़ती है भीड़
जो करती है भरसक कोशिशें
कि बच जाए घायल की जान
और एकाध धौल खाकर चुपचाप निकल जाए
बड़ी गाड़ी चलाने वाला तयशुदा कुसूरवार

चूकते नहीं हैं लोग मरणासन्न आदमी के लिए रक्तदान से
और बिगड़ जाते हैं सुनकर इस के एवज मे
दूध और फल तक की बात

घर के दरवाजे पर आए नीम पागल को
प्रेम से खाना खिलाती हैं गृहस्थिने
हालांकि वे नहीं भूलती हैं गरियाना
पड़ोस के कस्बे के लोगों को
जो रोडवेज का टिकट कटाकर
भेज देते हैं हर पागल को
उनकी बस्ती मे आराम की जिंदगी के लिए

रात गुजरता है जब कोई
कस्बे की अंतरिक्ष से भी ज्यादा अंधेरी गलियों से
नही रोकते पुलिस वाले उसे पूछताछ के लिए
जैसे वे जानते हों कि कोई भी नहीं है अपराधी यहाँ

आज भी लोग करते हैं शिकायतें बदस्तूर
कि कहाँ से कहाँ पहुँच गई ये दुनिया
पर नही कर पाया ये कस्बा एक रत्ती विकास

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बेटियाँ  (काव्यम्,कोलकाता,सितंबर-अक्टूबर 2004 अंक)

गूँज रही है  
धान के कटोरे में  
रोपा गीतों की आवाज़
जैसे बज रहे हों 
एक सम स्वरलहरी पर 
सैकड़ों तानपूरे,
पलेवा किया खेतों में
कतारबद्ध खड़ी औरतें 
जगा रही हैं रोपा
बड़े जतन के साथ
धान के बिंडे से चुनकर
करीने से एक एक बाली
रखती हैं वे धरती माँ के 
तार तार आँचल पर

सम्हाल रही है माँ बड़े जतन से
बेटियों की दी इस सौगात को,
जानती है वह कि  
इसके बदले मे लौटाना है उसे 
अपनी बेटियों को ज्यादा से ज्यादा
जैसे लौटाती हैं माएँ 
बिटिया के ससुराल से आया बायन
समाइत भर दो गुना,
चौगुना, अठगुना,
चाहे कहीं से लेना पड़े उधार 
चुकाती हैं माएँ बेटियों का कर्ज/
बिना बेटियों को बताए
चुपके से कर देती हैं माएँ
ससुराल मे बेटियों की इज्ज़त और खुशी 
के लिए हर इंतज़ाम 

चिंतित है धरती माँ
कहाँ से लाएगी इतना अन्न
अपनी बेटियों की खुशी के लिए
ठीक से बरसा नहीं आषाढ़     
मुंह बिराकर निकल गई 
दो दो सावन की सौगात

नहीं है धरती माँ के पास जाँगर
कि भर सके खलिहान में 
अनाज के ढेर
परेशान है वह कि कौन देगा उसे उधार
जिससे बचा सकेगी वह
बेटियों की खुशियाँ और मुस्कान
बेटियाँ जो दिन भर बतिया कर 
उससे अपना दुख दर्द 
और सौंप कर सारी विपत्तियाँ
चली जा रही हैं मस्ती में, 
पूरा ढर्रा घेर कर हँसती खिलखिलाती
साँझ ढले घर की ओर

देख रही है धरती माँ उदास
जाती हुई अपनी बेटियों को
और अपने तार तार आँचल को।   




पद्मनाभ गौतम 
बैकुंठपुर, जिला - कोरिया (छ.ग.) 



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प्रतिरोध  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)



जाने कैसा 
महसूस किया होगा 
जंगलों ने 
जब रौंदी गई होगी 
उनकी जमीन 
अनचाहे कदमों के तले 
पहली बार


शायद दुनिया की 
खूबसूरती के बारे में 
पहली बार टूटा होगा
उनका भ्रम
उसी तरह
जैसी बिखर कर 
तार तार हो जाता है 
किसी खिलन्दड़ी लड़की का 
निश्छल मन 
किसी जानवर की 
हवस का 
शिकार बनने के बाद  
फिर भी जाने क्यों 
जंगलों ने 
नहीं दर्ज कराई शिकायत 
न ही चीखे 
न ही गिड़गिड़ाए 
शायद जंगलों का मौन ही 
होता होगा 
उनका सबसे बड़ा 
प्रतिरोध 


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स्त्री  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)
\

वह वहीं पर
हो गई विराट
जहाँ वह पहली बार
कहलाई थी शून्य

वह वहीं पर
सिद्धा हो गई
सबसे ज्यादा निश्छल
जब उसने
चुपचाप स्वीकार कर लिया
कहलाना विनाश की जड़

वह वहीं पर फैल कर
हो गई आकाश
जब बिछाया गया
उसे धरती बनाकर
सबसे पहले

हालाँकि,
वह उसी जगह
होकर रह गई विलीन
जहाँ वह आई थी
इस दुनिया में
पहली बार
और बावजूद इसके
कि वह
कभी न कर सकी
कोई भी ऐसा काम
जिसे किया जा सकता याद
फिर भी संभवतः
की गई याद
दुनिया में
हर चीज से बढ़कर
बड़े लोगों,
बड़ी चीजों
और बड़ी घटनाओं
से पहले
सबसे ज्यादा बार

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न्याय  (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)

नस्लों का बँटवारा
करते समय
दे दिये तुमने
दुबले पतले मगर को
नुकीले दाँत
और साथ में दे दी
हर खाद्य-अखाद्य
खाने की छूट,
फिर दे दी
भीमकाय गजराज को
घास खाने की हिदायत
और भेज दिया
पानी पीने के लिए
तालाब में
तुम्हारी ही दी हुई
हिदायत को मानकर
जब पकड़ा मकर ने
गजराज को,
मकर की धृष्टता पर
तुम हो गए नाराज
सुन कर
गजराज के मुंह से
स्त्रोत वाचन
कर दिया मकर का संहार
और इस तरह कर दिया
अपना अद्भुत न्याय

लेकिन
समस्त स्वीकारोक्तियों के बीच
एक प्रश्न,
भला तुमने मकर को
यह क्यों न सिखाया
कि  उसे  खानी हैं
केवल मछलियाँ
और गजेंद्र से
किसी ने यह क्यों न पूछा
कि वह
पाने पीने के लिए
लंबी सूंड होने पर भी
क्यों उतरा पानी में बनकर
मकर भोज

हाँ, लेकिन
अब भी है हमें विश्वास
कि सब कुछ होता है यहाँ
केवल और केवल
तुम्हारी सदेच्क्षा से
हमें पूरी तरह यकीन है
तुम्हारे महान न्याय पर

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नक्सलाइट बेल्ट में    (अक्षरपर्व , अक्टूबर 2004, पृष्ठ - 41-43)

बस जरा-सा
दूर कर दो
यह जंगल की
सीमा रेखा,
वह कर रहा था इशारा
जंगल में खोदी गई
फॉरेस्ट लाइन की ओर,
कि हमें हमारे ही
जंगलों से बेदखल कर
दिया गया है,
हमने देखा था उसे,
वादरफनगर के जंगलों में
कोसना के नशे में
गिड़गिड़ाते हुए

तब तक हम
नहीं जानते थे
कि ऐसे होते हैं जंगली
और तब पहली बार टूटा था
उनके तौर तरीकों और
क्रूरता के बारे में
फैन्टम गाथाएँ पढ़कर
उपजा हुआ भ्रम
जब हाथ जोड़
रिरियाते देखा था उसे
बीहड़ जंगलों के बीच
सपरिवार
अपनी पत्नी और
आधा दर्जन नाक बहाते
बच्चों के साथ

हमें जंगल दरोगा
समझकर वह
किए जा रहा था फरियाद
कि हम कर दें
जंगल की सीमा रेखा
जंगल से और दूर

वह एक पैर से था तैयार
कि ले लें हम
उसकी बरसों की जोड़ी
हुई पूंजी में से
एक बोतल कोसना
और एक मुर्गा
तथा और ज्यादा जिद करने पर
एकमात्र बकरा भी,
किन्तु किसी भी तरह
कर दें फॉरेस्ट लाइन को
उसकी जमीन से बाहर
घूमने दें हम उसे
उसके जंगलों में
निर्बाध
उसे देखा था
उस जंगली को
नक्सलाइट बेल्ट में


                                   **********************************
                                           ********************************** 
                                           **********************************


कराहते नहीं हैं पेड़   (कृति ओर, अंक- 31, जनवरी-मार्च, 2004, पृष्ठ-72)


मौन नहीं हैं जंगल
ध्यान से सुनो
अक्सर करते हैं वे 
बुदबुदाकर 
शांति की प्रार्थनाएँ,
अभी नहीं की हैं 
अख्तियार उन्होने  
प्रतिरोध की भाषा,
हालाँकि 
काटी जा रही हैं 
उनके दरख्तों की जड़ें,
और दीमकों ने 
कर दिये हैं 
तने खोखले
कराहते नहीं हैं पेड़
बस पढ़ते हैं 
कुछ अस्फुट मंत्र से
जैसे कर रहे हों जागृत
अपने भीतर की 
किसी शक्ति को 
जो एक दिन दफ़अतन
करेगी चीत्कार 
जब काटी जा रही होगी
जंगल के आखिरी दरख्त की 
आखिरी जड़
और तब न चाहते हुए भी 
बनना पड़ेगा 
धरती को रुदाली
बिखेर कर अपने केश
जब करेंगे जंगल
अपना अंतिम आर्तनाद

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आर्केशिया  (कृति ओर, अंक- 31, जनवरी-मार्च, 2004, पृष्ठ-72)

उग चला है 
आर्केशिया 
जंगलों में पड़ी
खाली जमीन
भरने के लिए
इससे बढ़कर 
और भला 
क्या होगा 
कि केवल 
दो ही सालों में
उसने भर दी है 
जगह सरई के  
बूढ़े दरख्तों की 
जिन पर 
पचासों साल तक 
चिड़ियों ने बिताए 
बेफिक्री के दिन
जाने कितने बोरर
छेड़ कर तने पालते रहे 
अपना पेट,
और जो 
आखिरी साँस तक 
डटे रहे इसलिए 
कि उनके सहारे 
काट ले जाए
मुखारी वाली गोंदिन 
उम्र की 
सातवीं दहाई भी 
हिम्मत के साथ
सरई के 
मीलों दूर तक पसरे 
जंगलों की जगह 
अब शान से 
डटा हैं 
आर्केशिया
यद्यपि अभी 
इतने मजबूत नहीं 
उसके तने 
कि डट कर 
कर सकें मुकाबला 
सरई के बचे-खुचे 
जंगलों से 
निकलकर
समय बेसमय 
आ जाने वाले 
अंधड़ों का 
और जरा भी नहीं है 
उसकी छाल सख्त 
कि हर आता जाता 
लिख जाता हैं उन पर
मनचाही इबारत
महज अपने नाखूनों से कुरेद कर  
















  






If you awake....means you were asleep.....

If you awake....means you were asleep..... After a long time, today I have opened my blog. The last post dates back in April 2015. After ...