2004 मे प्रकाशित संग्रह "कुछ विषम सा" की गज़लें ...
(1)
शांति के आलाप मे रणनाद कैसा
संधि ध्वज के शीर्ष पर उन्माद कैसा
भस्म हो यदि होलिका विस्मय नहीं है
पर स्वतः जल जाए वह प्रहलाद कैसा
लो पिघल कर बह चली जलधार खारी
अश्रुओं को हर्ष क्या अवसाद कैसा
खो चुकी ध्वनि लौट कर आनी नहीं है
वीतरागी शब्द का प्रतिसाद कैसा
सूर्य अणु विस्फोट प्रतिक्षण कर रहा पर
नाद जो हद में बंधे वह नाद कैसा
(2)
चलो कि चाँद सितारों के घर चला जाये
चला हवा का काफिला जिधर चला जाए
मिला के हाथ सभी से सभी का हो जाना
बचो कि इक बचा न ये हुनर चला जाये
निगाहें खौफ क्यूँ खाती हैं सफ़र मुश्किल है
है जिद अगर कि इस पे उम्र भर चला जाये
दिखा रहे हो जिसे तुम मुझे जमाने से
कहो कि क्यूँ न दिल से अब ये डर चला जाये
बहें तो अश्क़ तबीयत है बहें शिद्दत से
बला से आखिरी ये मालोज़र चला जाये
चलो तो आज उड़ें और उड़ें सूरज तक
जलेंगे इससे पर ये छोड़ दर चला जाए
(3)
सोच समझ नादानी क्यूँ
छलनी रुकना पानी क्यूँ
घर के रस्ते पर लगती
मुश्किल हर आसानी क्यूँ
नए सुबह के गीत नए
फिर यह तान पुरानी क्यूँ
मुरली का हर सुर राधे
फिर मीरा दीवानी क्यूँ
जीवन तुम कहते कविता
चुभती हुई कहानी क्यूँ
जो है खुदमुख्तारी तो
सुब्होशाम वीरानी क्यूँ
(4)
सर झुकाए मौन सारे प्रश्नवाचक आजकल
हो गए सब सूक्त रक्षा के विनाशक आजकल
नेत्रावंचित रास थामे हाथ में इस देश की
दृष्टिसिद्धों को सिखाते चक्षु त्राटक आजकल
लिख रहे है श्वेत पत्रक अनपढ़ों के शोक पर
रात की स्याही बना कर शब्द साधक आजकल
नृत्य, नर्तक और वादक मौन मरघट ज्ञान से
गीत थक कर हो चले सारे विलापक आजकल
घर जले तो मूक बनकर देखने में लाभ है
अग्निवर्षक बन गए हैं अग्नि शामक आजकल
(5)
बैठते हैं छाँव मे अक्सर कहीं पर
मैं, सफ़र और रहगुज़र थककर कहीं पर
कौन साबित कर सकेगा पारसाई
हर नज़र है लौटती रुककर कहीं पर
दो दुआ अब आँख को तुम जागने की
खो गए हैं नींद, घर, बिस्तर कहीं पर
एक चेहरा धूप भी छाया भी जैसे
एक पर्वत है कहीं कंकर कहीं पर
किस तरफ जाएँ जरा इतना बताना
कहीं कातिल कातिलों का डर कहीं पर
पारसाई = पवित्रता
(6)
जब गीतों से अक्षर ही मिट जाएंगे
तब ये ध्वनि और नाद भला क्या गायेंगे
वधशाला में बैठ लिखे जो छंद कठिन
जाने किन रागिनियों मे बांध पाएंगे
सभी अयाचित प्रश्नों पर दो क्षण का मौन
क्या ऐसे ही क्लेश मिटाये जाएंगे
पतझड़ में वृक्षों से फूट रहा यौवन
नवपल्लव किन ऋतुओं मे इठलाएँगे
मंत्रवेष्टित हम भी कब तक अनुरागी
हिम खंडों से अंगारे पिघलाएँगे
(7)
बीच शहर में जैसे वह उपवन है
मन की परतों मे इक अन्तर्मन है
कठपुतली सब नाच रही मेले में
हतप्रभ, गुमसुम खोया रंगभवन है
कब तक ढाँकेगी बद्ली मत पूछो
जगह जगह तो उधड़ा नील गगन है
रात सहम कर बाँध चली है खेमा
दूर क्षितिज पर सूरज लिए कफन है
दीवारें हैं कहाँ, कहाँ दरवाजा
घर का मेरे सब कुछ तो दरपन है
परबत ऊपर जब भी उछले नदिया
लगता गौतम छिना हुआ बचपन है
(8)
कुछ पल तो अपने आपको खुद से जुदा करें
आओ किसी के नाम पे हम भी दुआ करें
घर बार ज़मीं खेत रसोई तो बंट गए
चलिये हवा-ओ-धूप का भी फैसला करें
खुद हमने चुना जान के ये रेत का बिस्तर
जलता है जब बदन तो किससे क्या गिला करें
होंठों पे हमने तल्खियों की फ़स्ल उगाई
जाहिर है कैसे हँस के तुम्हें अलविदा करें
तारीख बदलना है महज़ लफ्जों का हुनर
आओ कि अपने नाम इसे सुनहरा करें
छिप छिप के तुमसे खत-ओ-किताबत हुई बहुत
बेफिक्र जमाने से चलो अब मिला करें
(9)
बिखरे बिखरे चेहरे लिख
उन पर ख़्वाब सुनहरे लिख
किसी कमाल की पत्ती पर
बूंद कहाँ पर ठहरे लिख
यहाँ थिरकती लहरें हैं
बहुत सफ़ीने गुजरे लिख
पड़ी सीपियाँ साहिल पर
मोती कितने गहरे लिख
मैला शब का अंचल है
रात कहाँ पर ठहरे लिख
पत्तों की पेशानी पढ़
कितने मौसम गुजरे लिख
सफ़ीने=नावें , पेशानी=माथा
(10)
कुछ विषम सा गीत के सम पर हुआ है
फिर कहीं सुर ताल से बाहर हुआ है
घंटियाँ है चीखती सुनिए कथा यह
किस वजह से देवता पत्थर हुआ है
चीख कर तूफान ने चुप्पी है साधी
तब हवा मे मर्सिया अक्सर हुआ है
एक पत्ती डाल से टूटी है शायद
चूर मौसम किस कदर थक कर हुआ है
आग ने जाने उसे जाने उसे कैसा जलाया
आदमी वो अज़दहा जलकर हुआ है।
मर्सिया=शोकगीत, अज़दहा=ड्रैगन
(11)
फूलों की हथेली पे अंगार रख दिये हैं
बच्चों की किताबों में हथियार रख दिये हैं
आकाश के फ़रिश्ते उतरें तो किस जगह पे
हर ओर तुमने झूठे अवतार रख दिये हैं
तहजीब फिर रही है हरमोश बन के बेहिस
घर के सहन मे जबसे बाज़ार रख दिये हैं
ये कौन सा चलन है स्वागत की आरती का
अक्षत के साथ किसने औज़ार रख दिये हैं
जागो तो नींद से अब बेआब खबरगीरों
पीले सफ़ों से भरके अखबार रख दिये हैं
हमसे भी है उन्हें अब नफरत की शिकायत सी
मैंने जो सच में भीगे अशआर रख दिये हैं
हरमोश = वेश्या, अशआर = शेर का बहुवचन
(12)
देख कर कुछ ख़्वाब में डरने लगे हैं
आदतन कुछ मंत्र से पढ़ने लगे हैं
कितने ज़्यादा ज़ख्म हम खाते हैं अक्सर
उससे ज़्यादा चोट हम सहने लगे हैं
सर कहीं दीवार से टकरा न बैठें
खौफ से घर छोड़ कर रहने लगे हैं
हैं अजब सहारा के ये रेतीले पर्वत
खुद बने थे , खुद-ब-खुद ढहने लगे हैं
क्या पता कल नाम लेवा हो, नहीं हो
खुद का तर्पण लोग खुद करने लगे हैं
(13)
जी रहीं हैं इक कंटीली बाड़ थामें औरतें
अध खुले खिड़की-ओ-दर की आड़ थामें औरतें
पंचहंथी सूती में कैसे बच के रहती आबरू
खाक समझें ये ज़री के पाड़ थामे औरतें
इनसे रौशन है सदा बारात की रंगीनियाँ
चल रही जो रौशनी के झाड़ थामें औरतें
इस तरफ देखो, उधर जाओ, इधर मत हो खड़ी
जी रही हर रोज तिल का ताड़ थामें औरतें
है खुदाई फर्ज़ शौहर, बाल-बच्चे, रोटियाँ
फूँक रहीं चूल्हे में ये खिलवाड़ थामें औरतें
(14)
गर थोड़ी नमकीन ज़िंदगी हो जाए
हो थोड़ी तौहीन, ज़िंदगी हो जाए
तितली चिड़ियों जैसी थोड़ी परवाजें
कौन कहे शाहीन ज़िंदगी हो जाए
इतना भी मज़बूर करो मत साँसों को
तसलीमा नसरीन ज़िंदगी हो जाए
उजली काली धूसर मटियाली अक्सर
चल बाबा रंगीन ज़िंदगी हो जाए
रातों दिन बस चलना कैसा अब तो बस
हम नाचें और बीन ज़िंदगी हो जाए
शाहीन=बाज
(15)
है दुआ ये किसी बददुआ की तरह
दर्द है ज़िंदगी देवता की तरह
कौन सिलता है खुशियों के ये पैरहन
क्यों लिबासे-खुशी है सजा की तरह
किसको तूफ़ान सी जिंदगी चाहिए
एक लम्हा मिले गर सबा की तरह
क्यूँ समाती है खुद में सभी को जमीं
जब बरसता है कोई घटा की तरह
आँख खोजा करे तुममे इक आदमी
जब भी आते हो मिलने खुदा की तरह
ज़िंदगी इक ज़हर और मीरा से हम
कृष्ण आओगे कब तुम पिया की तरह
पैरहन=वस्त्र , लिबासे-खुशी= खुशियों के वस्त्र, सबा= ठंडी हवा।
(16)
किसी के गीत हवाओं को सुनाएँ जी भर
किसे की याद में हम आज नहाएँ जी भर
कहीं पे जोर से बारिश का उछालें पानी
किसी का अक्स सितारों मे बनाएँ जी भर
किसी का नाम लिखें हम हवा मे उँगली से
किसी शजर को ही झुँझला के हिलाएँ जी भर
लौट के जो नहीं आएगा उसकी राह तकें
गला के मोम हथेली को जलाएं जी भर
जहाँ पे दूर तलक हो न इक परिन्दा भी
वहाँ पे जा के किसी को दें सदायें जी भर
चलो कि रस्म मुहब्बत की यूं बादल डालें
किसी से इश्क करें, उसको हँसाएँ जी भर
(17)
इस कद्र जो अहसास की दौलत नहीं होती
नज़रों से मोतियों की ये निस्बत नहीं होती
लिक्खी है आस्माँ पे किसने ऐसी इबारत
कागज़ पे जिसकी कोई किताबत नहीं होती
ताउम्र रखे आँख पे दुनिया ये किसी को
इतनी भी पुरअसर कोई शोहरत नहीं होती
अक्सर ही कहा करते हैं हँसकर ये समंदर
झीलों मे गुफ्तगू की रिवायत नहीं होती
कोई तो अब्र रेत के दरिया पे बरसता
दरिया को तिश्नगी की शिकायत नहीं होती
ऐसा नही के सानेहा गजब नहीं हुआ
ये और है की हमको ही हैरत नहीं होती
कैसे घड़ी थी घर से कदम हम ने निकाले
घर लौटने की कोई भी साअत नहीं होती
निस्बत=संबंध, किताबत=हाथ से लिखने का हुनर,
अब्र=बादल, तिश्नगी=प्यास, लफ्ज-ए-अलविदा= विदा का शब्द
साअत=मुहूर्त, सानेहा=घटना।
(18)
हर नदी जैसे दहाना ढूँढती है
आँख बहने का बहाना ढूँढती है
शाम ढलते रूहे-आवारा हमारी
जिस्म मे कुछ आबोदाना ढूँढती है
इक नज़र जबसे यहाँ पत्थर हुई है
उठ के गिरने का बहाना ढूँढती है
रात घुटने मोड़ती है सर्दियों की
इक अदद कंबल पुराना ढूँढती है
वाईजों के खौफ से सहमी हुई है
अब गजल कुछ शायराना ढूँढती है
वाईज=बुद्धिमान
(20)
(31)
अगर फ़ितूर ये होता उतर गया होता
छान कर ख़ाक-ए-सहरा मैं घर गया होता
है शुक्र मैं भी जला जब जला शहर मेरा
वर्ना इल्ज़ाम तो मेरे ही सर गया होता
अगर मैं आँख में उसकी न उतरता गहरे
उसके अंदाजे बयां से तो डर गया होता
उसी ने प्यार से शायद न पुकारा मुझको
वक्त भी होता मैं गरचे ठहर गया होता
खामखाँ उसके लिये आंधियों के नाज़ सहे
वो तो तिनका था हवा में बिखर गया होता
तुम्हीं को आईने रखने का फन नहीं आया
वो खुद ही शीशे मे आकर उतर गया होता
(32)
शनासा=परिचित, शजर=वृक्ष
मरहम मरहम कहते ये नासूर हुए
सिल कर देखो ज़ख्म जरा अब शूलों से
लंगर क्या जाने राहों की मुश्किल को
बेहतर है , यह प्रश्न करो मस्तूलों से
हर बारिश मे सोचा करता है सावन
गूँजे शायद अब किलकारी फूलों से
मीठे सपनों की भी हद होती है क्या
तुम को क्या गर तोड़ें आम बबूलों से
सर के बल भी दुनिया में इक मंज़र है
हटकर भी तो सोचो कभी असूलों से
(37)
सुर दे दो तुम इनको अपनी मीठी सी शहनाई में
मैंने ये जो लफ़्ज़ लिखे हैं रातों की तनहाई में
पेड़ बहारों में खुश हैं तो उनसे मत पूछो ये प्रश्न
ज़र्द हुए हैं पत्ते कितने मौसम की अंगड़ाई में
माँग रहा हूँ दुआ खैर की कैसा असगुन सुबह सुबह
आ बैठे हैं चंद कबूतर सुबह सुबह अंगनाई में
वह जंगल की आग नहीं है फूल महज़ हैं टेसू के
लगता है कुछ धुन्ध जमी है आँखों की बीनाई में
नाव उसी की नदी उसी की तू भी है खुद उसका ही
मांग रहा जिससे तू कीमत पानी की उतराई में
बीनाई=दृष्टि
(38)
चुराकर वक्त की मुट्ठी से हम लम्हात लाये हैं
बड़ी मुश्किल से खातिर आपकी सौगात लाये हैं
उन्होने बंद कीं आँखें कि पानी का हुआ गिरना
उन्हे है फख्र रब से छीन कर बरसात लाये हैं
अजी वो रहनुमाँ होंगे खुदा वो हो नहीं सकते
तुम्हारे नाम पर वो माँग कर खैरात लाये हैं
हमारे खूँ की रंगत तो यकीनन एक है, लेकिन
अचानक आप क्यूँ लब पे ये मीठी बात लाये हैं
वज़न सूरज का कंधों पे हमारे पहले क्या कम था
जो अब क़िबला हमें बोझिल उनींदी रात लाये हैं
(1)
शांति के आलाप मे रणनाद कैसा
संधि ध्वज के शीर्ष पर उन्माद कैसा
भस्म हो यदि होलिका विस्मय नहीं है
पर स्वतः जल जाए वह प्रहलाद कैसा
लो पिघल कर बह चली जलधार खारी
अश्रुओं को हर्ष क्या अवसाद कैसा
खो चुकी ध्वनि लौट कर आनी नहीं है
वीतरागी शब्द का प्रतिसाद कैसा
सूर्य अणु विस्फोट प्रतिक्षण कर रहा पर
नाद जो हद में बंधे वह नाद कैसा
(2)
चलो कि चाँद सितारों के घर चला जाये
चला हवा का काफिला जिधर चला जाए
मिला के हाथ सभी से सभी का हो जाना
बचो कि इक बचा न ये हुनर चला जाये
निगाहें खौफ क्यूँ खाती हैं सफ़र मुश्किल है
है जिद अगर कि इस पे उम्र भर चला जाये
दिखा रहे हो जिसे तुम मुझे जमाने से
कहो कि क्यूँ न दिल से अब ये डर चला जाये
बहें तो अश्क़ तबीयत है बहें शिद्दत से
बला से आखिरी ये मालोज़र चला जाये
चलो तो आज उड़ें और उड़ें सूरज तक
जलेंगे इससे पर ये छोड़ दर चला जाए
(3)
सोच समझ नादानी क्यूँ
छलनी रुकना पानी क्यूँ
घर के रस्ते पर लगती
मुश्किल हर आसानी क्यूँ
नए सुबह के गीत नए
फिर यह तान पुरानी क्यूँ
मुरली का हर सुर राधे
फिर मीरा दीवानी क्यूँ
जीवन तुम कहते कविता
चुभती हुई कहानी क्यूँ
जो है खुदमुख्तारी तो
सुब्होशाम वीरानी क्यूँ
(4)
सर झुकाए मौन सारे प्रश्नवाचक आजकल
हो गए सब सूक्त रक्षा के विनाशक आजकल
नेत्रावंचित रास थामे हाथ में इस देश की
दृष्टिसिद्धों को सिखाते चक्षु त्राटक आजकल
लिख रहे है श्वेत पत्रक अनपढ़ों के शोक पर
रात की स्याही बना कर शब्द साधक आजकल
नृत्य, नर्तक और वादक मौन मरघट ज्ञान से
गीत थक कर हो चले सारे विलापक आजकल
घर जले तो मूक बनकर देखने में लाभ है
अग्निवर्षक बन गए हैं अग्नि शामक आजकल
(5)
बैठते हैं छाँव मे अक्सर कहीं पर
मैं, सफ़र और रहगुज़र थककर कहीं पर
कौन साबित कर सकेगा पारसाई
हर नज़र है लौटती रुककर कहीं पर
दो दुआ अब आँख को तुम जागने की
खो गए हैं नींद, घर, बिस्तर कहीं पर
एक चेहरा धूप भी छाया भी जैसे
एक पर्वत है कहीं कंकर कहीं पर
किस तरफ जाएँ जरा इतना बताना
कहीं कातिल कातिलों का डर कहीं पर
पारसाई = पवित्रता
(6)
जब गीतों से अक्षर ही मिट जाएंगे
तब ये ध्वनि और नाद भला क्या गायेंगे
वधशाला में बैठ लिखे जो छंद कठिन
जाने किन रागिनियों मे बांध पाएंगे
सभी अयाचित प्रश्नों पर दो क्षण का मौन
क्या ऐसे ही क्लेश मिटाये जाएंगे
पतझड़ में वृक्षों से फूट रहा यौवन
नवपल्लव किन ऋतुओं मे इठलाएँगे
मंत्रवेष्टित हम भी कब तक अनुरागी
हिम खंडों से अंगारे पिघलाएँगे
बीच शहर में जैसे वह उपवन है
मन की परतों मे इक अन्तर्मन है
कठपुतली सब नाच रही मेले में
हतप्रभ, गुमसुम खोया रंगभवन है
कब तक ढाँकेगी बद्ली मत पूछो
जगह जगह तो उधड़ा नील गगन है
रात सहम कर बाँध चली है खेमा
दूर क्षितिज पर सूरज लिए कफन है
दीवारें हैं कहाँ, कहाँ दरवाजा
घर का मेरे सब कुछ तो दरपन है
परबत ऊपर जब भी उछले नदिया
लगता गौतम छिना हुआ बचपन है
(8)
कुछ पल तो अपने आपको खुद से जुदा करें
आओ किसी के नाम पे हम भी दुआ करें
घर बार ज़मीं खेत रसोई तो बंट गए
चलिये हवा-ओ-धूप का भी फैसला करें
खुद हमने चुना जान के ये रेत का बिस्तर
जलता है जब बदन तो किससे क्या गिला करें
होंठों पे हमने तल्खियों की फ़स्ल उगाई
जाहिर है कैसे हँस के तुम्हें अलविदा करें
तारीख बदलना है महज़ लफ्जों का हुनर
आओ कि अपने नाम इसे सुनहरा करें
छिप छिप के तुमसे खत-ओ-किताबत हुई बहुत
बेफिक्र जमाने से चलो अब मिला करें
(9)
बिखरे बिखरे चेहरे लिख
उन पर ख़्वाब सुनहरे लिख
किसी कमाल की पत्ती पर
बूंद कहाँ पर ठहरे लिख
यहाँ थिरकती लहरें हैं
बहुत सफ़ीने गुजरे लिख
पड़ी सीपियाँ साहिल पर
मोती कितने गहरे लिख
मैला शब का अंचल है
रात कहाँ पर ठहरे लिख
पत्तों की पेशानी पढ़
कितने मौसम गुजरे लिख
सफ़ीने=नावें , पेशानी=माथा
(10)
कुछ विषम सा गीत के सम पर हुआ है
फिर कहीं सुर ताल से बाहर हुआ है
घंटियाँ है चीखती सुनिए कथा यह
किस वजह से देवता पत्थर हुआ है
चीख कर तूफान ने चुप्पी है साधी
तब हवा मे मर्सिया अक्सर हुआ है
एक पत्ती डाल से टूटी है शायद
चूर मौसम किस कदर थक कर हुआ है
आग ने जाने उसे जाने उसे कैसा जलाया
आदमी वो अज़दहा जलकर हुआ है।
मर्सिया=शोकगीत, अज़दहा=ड्रैगन
(11)
फूलों की हथेली पे अंगार रख दिये हैं
बच्चों की किताबों में हथियार रख दिये हैं
आकाश के फ़रिश्ते उतरें तो किस जगह पे
हर ओर तुमने झूठे अवतार रख दिये हैं
तहजीब फिर रही है हरमोश बन के बेहिस
घर के सहन मे जबसे बाज़ार रख दिये हैं
ये कौन सा चलन है स्वागत की आरती का
अक्षत के साथ किसने औज़ार रख दिये हैं
जागो तो नींद से अब बेआब खबरगीरों
पीले सफ़ों से भरके अखबार रख दिये हैं
हमसे भी है उन्हें अब नफरत की शिकायत सी
मैंने जो सच में भीगे अशआर रख दिये हैं
हरमोश = वेश्या, अशआर = शेर का बहुवचन
(12)
देख कर कुछ ख़्वाब में डरने लगे हैं
आदतन कुछ मंत्र से पढ़ने लगे हैं
कितने ज़्यादा ज़ख्म हम खाते हैं अक्सर
उससे ज़्यादा चोट हम सहने लगे हैं
सर कहीं दीवार से टकरा न बैठें
खौफ से घर छोड़ कर रहने लगे हैं
हैं अजब सहारा के ये रेतीले पर्वत
खुद बने थे , खुद-ब-खुद ढहने लगे हैं
क्या पता कल नाम लेवा हो, नहीं हो
खुद का तर्पण लोग खुद करने लगे हैं
(13)
जी रहीं हैं इक कंटीली बाड़ थामें औरतें
अध खुले खिड़की-ओ-दर की आड़ थामें औरतें
पंचहंथी सूती में कैसे बच के रहती आबरू
खाक समझें ये ज़री के पाड़ थामे औरतें
इनसे रौशन है सदा बारात की रंगीनियाँ
चल रही जो रौशनी के झाड़ थामें औरतें
इस तरफ देखो, उधर जाओ, इधर मत हो खड़ी
जी रही हर रोज तिल का ताड़ थामें औरतें
है खुदाई फर्ज़ शौहर, बाल-बच्चे, रोटियाँ
फूँक रहीं चूल्हे में ये खिलवाड़ थामें औरतें
(14)
गर थोड़ी नमकीन ज़िंदगी हो जाए
हो थोड़ी तौहीन, ज़िंदगी हो जाए
तितली चिड़ियों जैसी थोड़ी परवाजें
कौन कहे शाहीन ज़िंदगी हो जाए
इतना भी मज़बूर करो मत साँसों को
तसलीमा नसरीन ज़िंदगी हो जाए
उजली काली धूसर मटियाली अक्सर
चल बाबा रंगीन ज़िंदगी हो जाए
रातों दिन बस चलना कैसा अब तो बस
हम नाचें और बीन ज़िंदगी हो जाए
शाहीन=बाज
(15)
है दुआ ये किसी बददुआ की तरह
दर्द है ज़िंदगी देवता की तरह
कौन सिलता है खुशियों के ये पैरहन
क्यों लिबासे-खुशी है सजा की तरह
किसको तूफ़ान सी जिंदगी चाहिए
एक लम्हा मिले गर सबा की तरह
क्यूँ समाती है खुद में सभी को जमीं
जब बरसता है कोई घटा की तरह
आँख खोजा करे तुममे इक आदमी
जब भी आते हो मिलने खुदा की तरह
ज़िंदगी इक ज़हर और मीरा से हम
कृष्ण आओगे कब तुम पिया की तरह
पैरहन=वस्त्र , लिबासे-खुशी= खुशियों के वस्त्र, सबा= ठंडी हवा।
(16)
किसी के गीत हवाओं को सुनाएँ जी भर
किसे की याद में हम आज नहाएँ जी भर
कहीं पे जोर से बारिश का उछालें पानी
किसी का अक्स सितारों मे बनाएँ जी भर
किसी का नाम लिखें हम हवा मे उँगली से
किसी शजर को ही झुँझला के हिलाएँ जी भर
लौट के जो नहीं आएगा उसकी राह तकें
गला के मोम हथेली को जलाएं जी भर
जहाँ पे दूर तलक हो न इक परिन्दा भी
वहाँ पे जा के किसी को दें सदायें जी भर
चलो कि रस्म मुहब्बत की यूं बादल डालें
किसी से इश्क करें, उसको हँसाएँ जी भर
(17)
इस कद्र जो अहसास की दौलत नहीं होती
नज़रों से मोतियों की ये निस्बत नहीं होती
लिक्खी है आस्माँ पे किसने ऐसी इबारत
कागज़ पे जिसकी कोई किताबत नहीं होती
ताउम्र रखे आँख पे दुनिया ये किसी को
इतनी भी पुरअसर कोई शोहरत नहीं होती
अक्सर ही कहा करते हैं हँसकर ये समंदर
झीलों मे गुफ्तगू की रिवायत नहीं होती
कोई तो अब्र रेत के दरिया पे बरसता
दरिया को तिश्नगी की शिकायत नहीं होती
ऐसा नही के सानेहा गजब नहीं हुआ
ये और है की हमको ही हैरत नहीं होती
कैसे घड़ी थी घर से कदम हम ने निकाले
घर लौटने की कोई भी साअत नहीं होती
निस्बत=संबंध, किताबत=हाथ से लिखने का हुनर,
अब्र=बादल, तिश्नगी=प्यास, लफ्ज-ए-अलविदा= विदा का शब्द
साअत=मुहूर्त, सानेहा=घटना।
(18)
हर नदी जैसे दहाना ढूँढती है
आँख बहने का बहाना ढूँढती है
शाम ढलते रूहे-आवारा हमारी
जिस्म मे कुछ आबोदाना ढूँढती है
इक नज़र जबसे यहाँ पत्थर हुई है
उठ के गिरने का बहाना ढूँढती है
रात घुटने मोड़ती है सर्दियों की
इक अदद कंबल पुराना ढूँढती है
वाईजों के खौफ से सहमी हुई है
अब गजल कुछ शायराना ढूँढती है
वाईज=बुद्धिमान
(19)
और थोड़ा कमाल हो जाएँ
रेत से अब गुलाल हो जाएँ
लम्हे साअत सा कोई जीना है
आओ तो माहो-साल हो जाएँ
है वो अहसास क्या हकीकत में
इससे बेहतर ख़याल हो जाएँ
कब से खुलते रहे जवाबों से
इक दफा तो सवाल हो जाएँ
हम को खुद ही पता नहीं, कब हम
किसके दिल का मलाल हो जाएँ
(20)
जो नदी बरसात में चढ़ती नहीं है
मत कहो सैलाब की प्यासी नही है
हम अँधेरों से निकल आए तो देखा
रोशनी की उम्र भी लंबी नहीं है
इस कदर बदनाम होने का नफ़ा है
कोई तुहमत अब हमें चुभते नहीं है
तुमने मांगी मौत की मेरे दुआ, पर
कोई साजिश तो कहीं दिखती नहीं है
दूर परबत ऊँघता है अलसुबह जो
ज़िंदगी शायद वहाँ पहुंची नहीं है
कब से बेटी चाँद की ज़िद पर अड़ी है
सोचती है ज़िद कोई मंहगी नही है
(21)
आज सागर बूंद बन कर ढल रहे हैं
और क़तरे बन के दरिया चल रहे हैं
क्या किसी ठहराव का संकेत है यह
हम निरंतर और निरंतर चल रहे हैं
शब्द की कोई परिधि होती नहीं पर
शब्द साँचों मे निरंतर ढल रहे हैं
मंजिलों तक हम कभी पहुँचे नहीं हैं
पर हमेशा मार्ग से अविचल रहे हैं।
तुमने हाथों से लिखी तारीख लेकिन
हम उन्हें कंधों पे ढोकर चल रहे हैं
(22)
अपना कद यूँ बड़ा करो बाबा
सब से हँस के मिला करो बाबा
जब भी थक जाएँ ये कदम चल के
बन के दरिया बहा करो बाबा
यूँ हर इक बात मानना न भला
कोई ज़िद भी किया करो बाबा
जख्म गर खुद से खुद को लग जाए
खुद से छिप कर सिया करो बाबा
हाल पूछो तो अब जरा आकर
ज़ख्म थोड़ा हरा करो बाबा
होश आए न लौट कर वापस
जब पियो यूँ पिया करो बाबा
एक साअत को बेवफा होकर
हक नमक का अदा करो बाबा
(23)
रोशनी की इक नदी में डूब जाने के लिए
चाहतें लड़ती हैं अक्सर गुनगुनाने के लिए
आज फिर चुभने लगीं ओढ़ी हुई खामोशियाँ
आओ फिर बैठें कहीं किस्से सुनाने के लिए
झूठ के रँग एक चुटकी ले लिए तो क्या खता
चाहतों की साँवली सूरत सजाने के लिए
चंद कतरे धूप के भी मिल गए तो जाँ फिदा
कौन कहता चाँदनी के शामियाने के लिए
वक्त के दरिया में डूबी ये नजर वादे लिए
चंद पल आयेंगे इसमे डूब जाने के लिए
कुछ गिले शिकवे, खुशी कुछ और कुछ नादानियाँ
और क्या लगता है हमको मुस्कुराने के लिए
(24)
है जो कई मत कंवल कहिए तो साहिब
अब जरा आदत बदल कहिए तो साहिब
हो गए जालिम अगर सब पाक दमन
बेहिचक गंगा का जल कहिए तो साहिब
ख्वाबगाहें, रोटियाँ, तालीम-तमगे
एक मीठी सी गजल कहिए तो साहिब
नोच कर खुद के परों को है बनाया
घोंसले को अब महल कहिए तो साहिब
आपकी कुर्सी है तो फिर खौफ कैसा
इक दफा पहलू बदल कहिए तो साहिब
(29)
अगर पागल रवानी है
तो क़श्ती भी दीवानी है
जुनून है तेरे सर गरचे
तो इस सर भी जवानी है
समझ मत बस इसे लम्हा
यही पूरी कहानी है
नए मेहमान तो है घर में
मगर चादर पुरानी है
खला में ढूंढती है कुछ
हुई बिटिया सयानी है
वो अब खामोश रहती है
कभी थी आग, पानी है
ये ऊला है ज़रा मुश्किल
कहो क्या कोई सानी है?
खला=शून्य, ऊला = शेर का पहला मिसरा
सानी = शेर का दूसरा मिसरा
(30)
हर साँस ज़िंदगी की शिकायत से बाज़ आ
हर लम्हा-ओ-साअत की खिलाफ़त से बाज़ आ
आ बाज़ आ अगरचे इस आदत से बाज़ आ
हर बार बिखरने की नज़ाकत से बाज़ आ
साये मे दरख्तों के उगा है तो सब्र कर
बोसा फ़लक पे करने की चाहत से बाज़ आ
मुद्दत के बाद आई है रुत चाहतों की ये
मौसिम का उठा लुत्फ़, सियासत से बाज़ आ
मासूमियत से तूने मेरा घर जला दिया
हंगामाखेज अपनी शराफत से बाज़ आ
माकूल रुख नहीं है हवाओं का सफर को
तू लफ़्ज़े-अलविदा की हिमाकत से बाज़ आ
लिखना है तो लिख दिल पे उनके हर्फे-इल्तिजा
यूँ कागजों पे ख़तो-किताबत से बाज़ आ
बोसा= चुंबन
लम्हा-ओ-साअत = घड़ी और मुहूर्त
लफ़्ज़े-अलविदा = विदाई का शब्द
हर्फे-इल्तिजा = प्रार्थना का शब्द
ख़तो-किताबत = पत्र-व्यवहार
मत कहो सैलाब की प्यासी नही है
हम अँधेरों से निकल आए तो देखा
रोशनी की उम्र भी लंबी नहीं है
इस कदर बदनाम होने का नफ़ा है
कोई तुहमत अब हमें चुभते नहीं है
तुमने मांगी मौत की मेरे दुआ, पर
कोई साजिश तो कहीं दिखती नहीं है
दूर परबत ऊँघता है अलसुबह जो
ज़िंदगी शायद वहाँ पहुंची नहीं है
कब से बेटी चाँद की ज़िद पर अड़ी है
सोचती है ज़िद कोई मंहगी नही है
(21)
आज सागर बूंद बन कर ढल रहे हैं
और क़तरे बन के दरिया चल रहे हैं
क्या किसी ठहराव का संकेत है यह
हम निरंतर और निरंतर चल रहे हैं
शब्द की कोई परिधि होती नहीं पर
शब्द साँचों मे निरंतर ढल रहे हैं
मंजिलों तक हम कभी पहुँचे नहीं हैं
पर हमेशा मार्ग से अविचल रहे हैं।
तुमने हाथों से लिखी तारीख लेकिन
हम उन्हें कंधों पे ढोकर चल रहे हैं
(22)
अपना कद यूँ बड़ा करो बाबा
सब से हँस के मिला करो बाबा
जब भी थक जाएँ ये कदम चल के
बन के दरिया बहा करो बाबा
यूँ हर इक बात मानना न भला
कोई ज़िद भी किया करो बाबा
जख्म गर खुद से खुद को लग जाए
खुद से छिप कर सिया करो बाबा
हाल पूछो तो अब जरा आकर
ज़ख्म थोड़ा हरा करो बाबा
होश आए न लौट कर वापस
जब पियो यूँ पिया करो बाबा
एक साअत को बेवफा होकर
हक नमक का अदा करो बाबा
(23)
रोशनी की इक नदी में डूब जाने के लिए
चाहतें लड़ती हैं अक्सर गुनगुनाने के लिए
आज फिर चुभने लगीं ओढ़ी हुई खामोशियाँ
आओ फिर बैठें कहीं किस्से सुनाने के लिए
झूठ के रँग एक चुटकी ले लिए तो क्या खता
चाहतों की साँवली सूरत सजाने के लिए
चंद कतरे धूप के भी मिल गए तो जाँ फिदा
कौन कहता चाँदनी के शामियाने के लिए
वक्त के दरिया में डूबी ये नजर वादे लिए
चंद पल आयेंगे इसमे डूब जाने के लिए
कुछ गिले शिकवे, खुशी कुछ और कुछ नादानियाँ
और क्या लगता है हमको मुस्कुराने के लिए
(24)
है जो कई मत कंवल कहिए तो साहिब
अब जरा आदत बदल कहिए तो साहिब
हो गए जालिम अगर सब पाक दमन
बेहिचक गंगा का जल कहिए तो साहिब
ख्वाबगाहें, रोटियाँ, तालीम-तमगे
एक मीठी सी गजल कहिए तो साहिब
नोच कर खुद के परों को है बनाया
घोंसले को अब महल कहिए तो साहिब
आपकी कुर्सी है तो फिर खौफ कैसा
इक दफा पहलू बदल कहिए तो साहिब
(25)
ज़िंदगी की दौड़ मे रफ्तार बनना सीखिये
कीमतों का दौर है बाज़ार बनना सीखिये
खुद-बख़ुद आ जाएगा तब वज़्न-अंदाजो-अरूज़
आप पहले खुदबख़ुद अशआर बनना सीखिये
झूठ हैं इक बदमजा इस जा दुआएँ आपकी
हो सके तो दर्द में बीमार बनना सीखिये
कौन कब किसकी छिपाता है यहाँ बेपर्दगी
ढाँकने को जिस्म खुद दीवार बनना सीखिये
(26)
रात के साये मे परछाईं कहीं गुम हो गई
खुश रहे तन्हा तो तन्हाई कहीं गुम हो गई
आपकी संजीदगी का कहर कुछ ऐसा हुआ
बात दिल की लब तलक आई कहीं गुम हो गई
उठ रहे बेहिस बगोले रेत के अब हर तरफ
ओस में भीगी वो पुरवाई कहीं गुम हो गई
नींद मे भी अब उसे दिखती हैं तो बस खाइयाँ
ख्वाब की दौलत वो ऊँचाई कहीं गुम हो गई
क्या करे चारगरी, लाशें हैं ज़िंदा सब यहाँ
चुप मसीहा है मसीहाई कहीं गुम हो
फूल पर बैठी हुई तितली थी जैसे हर खुशी
जब मिली मिलते ही हरजाई कहीं गुम हो गई
संजीदगी=गंभीरता, चारागरी=उपचार,
हरजाई=बेवफा
(27)
मोतबर सा क्या दिलासा और भी कुछ है यहाँ
क्या सिवा मेरे शनासा और भी कुछ है यहाँ
तुम असूलों की लड़ाई शौक से कह लो इसे
है यकीं हमको दबा सा और भी कुछ है यहाँ
अलसुबह तो आस्माँ ये साफ था जैसे गुहर
अब मगर दिखता धुआँ सा और भी कुछ है यहाँ
गिर चुका पर्दा, मगर बैठे हुए हो अब तलक
क्या कोई बाकी तमाशा और भी कुछ है यहाँ
साये मे इस शहर के जीने को दिल मजबूत कर
सोचना मत ज़िंदगी सा और भी कुछ है यहाँ
मोतबर=विश्वसनीय, गुहर=मोती
शनासा=परिचित
(28)
कुछ इस तरह से घर की बुनियाद रखी जाए
पत्थर की जगह माज़ी की याद रखी जाए
कुछ और अभी जलसे होने को हैं शहर में
कुछ और अभी बस्ती ये शाद रखी जाए
आते हैं लौट कर भी गुजरे हुए ज़माने
पर शर्त है कि चाहत आबाद रखी जाए
अब और जिएंगे हम बस अपने तरीकों से
आओ खुदा के दर पे फरियाद रखी जाए
फिरते हैं लेके क्यूँ हम बस जहनो-दिल यजीदी
इब्ने-अली की भी तो कुछ याद रखी जाए
माज़ी=अतीत, शाद=खुश,
इब्ने-अली= हज़रत इमाम हुसैन
यजीद = खलीफा यजीद
(29)
अगर पागल रवानी है
तो क़श्ती भी दीवानी है
जुनून है तेरे सर गरचे
तो इस सर भी जवानी है
समझ मत बस इसे लम्हा
यही पूरी कहानी है
नए मेहमान तो है घर में
मगर चादर पुरानी है
खला में ढूंढती है कुछ
हुई बिटिया सयानी है
वो अब खामोश रहती है
कभी थी आग, पानी है
ये ऊला है ज़रा मुश्किल
कहो क्या कोई सानी है?
खला=शून्य, ऊला = शेर का पहला मिसरा
सानी = शेर का दूसरा मिसरा
(30)
हर साँस ज़िंदगी की शिकायत से बाज़ आ
हर लम्हा-ओ-साअत की खिलाफ़त से बाज़ आ
आ बाज़ आ अगरचे इस आदत से बाज़ आ
हर बार बिखरने की नज़ाकत से बाज़ आ
साये मे दरख्तों के उगा है तो सब्र कर
बोसा फ़लक पे करने की चाहत से बाज़ आ
मुद्दत के बाद आई है रुत चाहतों की ये
मौसिम का उठा लुत्फ़, सियासत से बाज़ आ
मासूमियत से तूने मेरा घर जला दिया
हंगामाखेज अपनी शराफत से बाज़ आ
माकूल रुख नहीं है हवाओं का सफर को
तू लफ़्ज़े-अलविदा की हिमाकत से बाज़ आ
लिखना है तो लिख दिल पे उनके हर्फे-इल्तिजा
यूँ कागजों पे ख़तो-किताबत से बाज़ आ
बोसा= चुंबन
लम्हा-ओ-साअत = घड़ी और मुहूर्त
लफ़्ज़े-अलविदा = विदाई का शब्द
हर्फे-इल्तिजा = प्रार्थना का शब्द
ख़तो-किताबत = पत्र-व्यवहार
अगर फ़ितूर ये होता उतर गया होता
छान कर ख़ाक-ए-सहरा मैं घर गया होता
है शुक्र मैं भी जला जब जला शहर मेरा
वर्ना इल्ज़ाम तो मेरे ही सर गया होता
अगर मैं आँख में उसकी न उतरता गहरे
उसके अंदाजे बयां से तो डर गया होता
उसी ने प्यार से शायद न पुकारा मुझको
वक्त भी होता मैं गरचे ठहर गया होता
खामखाँ उसके लिये आंधियों के नाज़ सहे
वो तो तिनका था हवा में बिखर गया होता
तुम्हीं को आईने रखने का फन नहीं आया
वो खुद ही शीशे मे आकर उतर गया होता
(32)
कब तक चलें जुदा ये अंदाज़े बयाँ लेकर
अब हम भी चल रहे हैं औरों की जुबाँ लेकर
सोहबत है ये इन्साँ की मौसम बचे तो कैसे
आई हैं बहारें भी मुट्ठी में ख़िज़ाँ लेकर
लौटे शहर से जब हम एक दूर के सफर से
रहना पड़ा हमें खुद औरों का मकाँ लेकर
बिस्तर की रेत क्या है चुभती है तो चुभ जाए
जब नींद चल रही हो खुद तीरो-कमाँ लेकर
जो खौफ का पारा है ऐसे नहीं झलकता
देखो अगर उसे तो साँसों के निशाँ लेकर
(33)
जिसने खुद को नींद में चलते देखा है
यकीं का चेहरा खौफ में ढलते देखा है
रात के रहबर ख्वाबों को सुई धागे से
फटी एड़ियाँ सुब्ह् को सिलते देखा है
लेकर शोहरत और बुलंदी इठलाते
सूरज को हर शाम पिघलते देखा है
जाने क्यूँ ये शहर है सहरा, सबने तो
रगों मे इसकी नदी मचलते देखा है
कुहरे से ठिठुरी गज़लों को सर्दी में
सुबह सबेरे काम पे चलते देखा है
बादल की छतरी ओढ़े हर बारिश में
घर को रफ्ता रफ्ता जलते देखा है
अक्सर होश में अपने होश को जाम लिए
मैंने गिरते और फिसलते देखा है
(34)
ताकत है तो लगा हवा पर पहरा तू
हिकमत है तो दे दरिया को चेहरा तू
ज़ख्म लिए अरसे से बेहिस घूम रही
दे चारा कुछ और नदी को ठहरा तू
पैमाँ दिल की ताकत तुझसे क्या होगी
घाव लगा ले चाहे जितना गहरा तू
तेरी मेरी वुसअत में है फर्क ज़रा
मैं हूँ जिंदा बस्ती मुर्दा सहरा तू
माना दरिया तूफ़ानी है तू लेकिन
खल्क मे उसके है अदना सा कतरा तू
राज तेरा अब सन्नाटे भी खोल रहे
लाख चढ़ा ले चेहरे पर अब चेहरा तू
हिकमत= तरकीब, बेहिस=संवेदना विहीन
वुसअत=विस्तार
(35)
रफ़्ता रफ़्ता घुस गया कोई शहर इस गाँव में
बन गई जबसे वो पक्की रहगुज़र इस गाँव में
डाकिये की राह अब कोई यहाँ तकता नहीं
फोन के बजने लगे जब से बजर इस गाँव में
अब न पहुना को खिलाते लोग गुड चिवड़ा दही
चाय करते प्यालियों मे सब नज़र इस गाँव में
शाम ढलते लोग अब चौपाल तक आते नहीं
टीवीयों से लोग रखते अब खबर इस गाँव में
खो गए चेहरे शनासा भीड़ के सैलाब में
आदमी ही आदमी आते नज़र इस गाँव में
उड़ चले बेबस परिंदे खंडरों की खोज में
कट गए जबसे वो बूढ़े सब शजर इस गाँव में
(36)
कब तक यूं तेज़ाब गिरेगा फूलों से
कब तक बच्चे बहलेंगे तिरशूलों सेमरहम मरहम कहते ये नासूर हुए
सिल कर देखो ज़ख्म जरा अब शूलों से
लंगर क्या जाने राहों की मुश्किल को
बेहतर है , यह प्रश्न करो मस्तूलों से
हर बारिश मे सोचा करता है सावन
गूँजे शायद अब किलकारी फूलों से
मीठे सपनों की भी हद होती है क्या
तुम को क्या गर तोड़ें आम बबूलों से
सर के बल भी दुनिया में इक मंज़र है
हटकर भी तो सोचो कभी असूलों से
(37)
सुर दे दो तुम इनको अपनी मीठी सी शहनाई में
मैंने ये जो लफ़्ज़ लिखे हैं रातों की तनहाई में
पेड़ बहारों में खुश हैं तो उनसे मत पूछो ये प्रश्न
ज़र्द हुए हैं पत्ते कितने मौसम की अंगड़ाई में
माँग रहा हूँ दुआ खैर की कैसा असगुन सुबह सुबह
आ बैठे हैं चंद कबूतर सुबह सुबह अंगनाई में
वह जंगल की आग नहीं है फूल महज़ हैं टेसू के
लगता है कुछ धुन्ध जमी है आँखों की बीनाई में
नाव उसी की नदी उसी की तू भी है खुद उसका ही
मांग रहा जिससे तू कीमत पानी की उतराई में
बीनाई=दृष्टि
(38)
चुराकर वक्त की मुट्ठी से हम लम्हात लाये हैं
बड़ी मुश्किल से खातिर आपकी सौगात लाये हैं
उन्होने बंद कीं आँखें कि पानी का हुआ गिरना
उन्हे है फख्र रब से छीन कर बरसात लाये हैं
अजी वो रहनुमाँ होंगे खुदा वो हो नहीं सकते
तुम्हारे नाम पर वो माँग कर खैरात लाये हैं
हमारे खूँ की रंगत तो यकीनन एक है, लेकिन
अचानक आप क्यूँ लब पे ये मीठी बात लाये हैं
वज़न सूरज का कंधों पे हमारे पहले क्या कम था
जो अब क़िबला हमें बोझिल उनींदी रात लाये हैं
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