शुक्रवार, 5 अक्टूबर 2012

इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ कुछ कविताएँ


दृष्टि चाहिए उनके लिए
और वे भी चाहती हैं दृष्टि

बुन-छींट कर
उगाई नही जा सकती हैं वे
फसलों की तरह,
उन्हें तो केवल भर कलेजा
सूँघ सकते हैं हम
खदकते अदहन में डले
भात की गमक सा
या पढ़ सकते हैं ताजी गही धान के
ललछर-मटिहर रंग में

वे जो हैं हमारे इर्द-गिर्द
हमेशा से मौजूद

अभी उस दिन देखा था उन्हें
डिब्रूगढ के पास जमाइरा चाय बागान में,
और अपने आप गूँजने लगा था कानों में
भूपेन दा का गान -
“एक कली दो पत्तियाँ
नाज़ुक-नाज़ुक उंगलियाँ”

तोड़ने वाला और टूटने वाला
दोनों ही तो थे कविताएँ,

किसी रौशनाई ने नहीं रचा था उनको,
वे तो थीं वहाँ पर पहले से मौज़ूद,
भूपेन दा की मधुर आवाज़ में उतरने से
पहले भी और उसके बाद भी

इन दिनों मैं भी चुनना चाहता हूँ
कुछ कविताएँ

आँगन में बेटे के जगाए
पेरीविंकल के फूलने के साथ
आँखे खोलती
पहली दुधमुँही उम्मीद से

गुझिए सी मीठी अँगरेजी
उचारती बिटिया पर
न्यौछावर होती माँ की मुस्कान,
और उस मुस्कान के पीछे थिरकते
एक अधूरे स्वप्न से

छह साल के पोगम पादू के
उस गुस्से में भी तो
हुई है नाजिल एक कविता ही,
जो है सुबह से नाराज़
कि कैसे आ गया रात को अचानक
उसकी माँ की गोद में
वह गुलाबी सा नन्हा बच्चा
जिसे सब बता रहे हैं उसका भाई,
आज सुबह से शिकायत है उसे कि
-’सब प्यार करता है
केवल छोटा लोग को,
बड़ा लोग को तो कोई पूछता ही नहीं’,
और फिर बरबस ही मुस्कुरा देता है
मुझे देखकर वह छोटा
जो हुआ है अभी-अभी बड़ा,
बोलो, क्या नहीं है यह भी एक कविता ?

कुछ वहाँ भी दिखी थीं बगरी
ईगो बस्ती से  कुछ आगे
डिब्रूगढ़-आलंग सड़क पर झूमते,
लाल दहकते मागर फूलों के
देवकाय वृक्षों की छाँव में

कुछ कविताएँ
चुनना चाहूँगा
बोगीबील फेरी-घाट की
आपाधापी से और यकीनन
कुछ लोहित से भी ज़रूर

पर लोहित से कविता चुनना
लग रहा है ज़रा मुश्किल,
दरअसल लोहित की
ज़्यादातर  कविताएँ तो
ले जा चुके हैं भूपेन दा पहले ही
काँधे पर टँगे बैम्बू बैग में डाल कर
और मगन मन गा रहे हैं
लोगों के दिलों मे बैठे हुए।

पद्मनाभ गौतम
आलो, अरूणाचल प्रदेश
20.09.2012



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