कांधे पर रखकर
कविताओं का खाली थैला
निकल पड़ा हूँ मैं
नजरें चुराता
उस पहाड़ से,
जो ताकता है मुझे
अपने ठीहे से दिनरात
और जिसे मैं
अपनी बालकनी से,
जो भरता है
मेरा खालीपन
उतरकर मेरे अन्दर,
तब भी, जब कि
सो चुकी होती है सारी दुनिया
मेरे रतजगे से बेपरवाह,
और जब रात के चौथे पहर
खोजता हूँ मैं उसे
अंधेरे में आँखें फैलाते हुए
गए बुध की शाम
घिर आया था एक बादल
उसके इर्द-गिर्द,
जैसे पहन रखी हो उसने
एक बड़ी सी कपासी माला
और वह इतराता रहा था
किसी बच्चे की मानिंद
तिरछे होंठों से
मुस्कुराते हुए,
जिक्र नहीं
पहाड़ों पर छोड़ दिये गए
उन झूम खेतों का भी,
जो हैं अब केवल
यादों के धागे में लगी
एक गठान,
जिनका काम है
अपनी जगह बैठे बैठे
यह याद दिलाना
कि कौन कौन से बच्चे
पैदा हुए थे
उनकी बिजाई के साल
चुरा ली हैं आँखें
पहाड़ की सगोती
सियोम से,
जिस की कलकल है
उसके पास-पड़ोस
का जीवनराग,
जो नदी से ज्यादा है
एक बातें सुनती सहेली,
एक भात खिलाती माँ,
एक कहानियाँ सुनाती दादी,
या सही मानों में
वेस्ट सियांग की आत्मा,
छोड़ कर आगे
बढ़ रहा हूँ मैं
आहिस्ता आहिस्ता
अपनी वीरानगी से ही
दीवाना बना लेने वाली
बी.आर.ओ. की
ऊँघती सड़क,
आधे रास्ते में ईगो होटल के
उडि़या मालिक की
मोनोपोलिस्टिक चाय,
अंतहीन कदलीवन
और वह सब कुछ
जो हो सकता है
शहर की कविता के लिए
अवाँछित,
उन नाटे आदमियों को भी
जिनकी पवित्र निगाहों की वजह से
श्वेता ने दिया है
वेस्ट सियांग को
स्त्रियों के लिए
सबसे सुरक्षित जगह का दर्जा,
और जहाँ मेरी पत्नी
पहली दफा घूम पाई है
बेपरवाह-बेखौफ,
छूट रही हैं रास्ते के साथ
वे औरतें भी,
जिनके पीछे
जरूरत भर के
कपड़े पहनने के बावजूद
नहीं फिरा करतीं
कामलोलुप निगाहें
बल्कि
फिरता है
उनके काँधे की टोकरियों में लदा
इन छोटी छोटी
आदी बस्तियों का
बगैर विदेशी निवेश वाला
समूचा अर्थशास्त्र
दुनिया का
सबसे सीधा-शरमीला
बायसन, मिथुन,
हमेशा की तरह
देख चुका है मुझे दूर से
गरदन उठा कर,
और है थोड़ा चकित
कि इस दफा
न मैंने उसे जी भरकर देखा
और न ही छेड़ा ,
पर शायद वह समझ रहा है
कि आज है मुझे
जाने की जल्दी
उन गुस्सैल इंसानों की बस्ती में
जहाँ कहीं
मिल सकेगी मुझे शायद
एक सुन्दर-सुघड़ कविता
काफी करीब पहुँच चुका हूँ मैं
अब उस कविता के
बी.आर.ओ.की
दुखी-छिली सड़क
जोड़ देती है
मुझको अचानक
एक चौड़ी खूबसूरत
सड़क के साथ,
जो है रात दिन जागने की
वजह से बेचैन
और जिसकी
जलती आँखों को तलाश है
तो सिर्फ
फुर्सत की पहली नींद की
बहती है एक नदी
उसके भी पास से,
नदी, जो बतियाती है
केवल अपने आप से,
नदी नहीं, अपितु वह तो है
एक राग-भाव विहीन
पहाड़ी लड़की
जिसे धोखे से ले जाकर
बेच दिया गया हो
सोनागाछी बाजार में
इसी सड़क और नदी के बीच
मिल रही है मुझे
पहली कविता,
और उस कविता में
सपाट चेहरों और
भावहीन आँखों वाले
अनगिनत मशीनी लोगों
के बीच
नोची जाती एक लड़की
इसी लड़की पर आकर
थम जाती है
इस शहर की कविता
पर मुझ गँवार कवि की
कलम भी तो
अकबका गई है
इस दृश्य पर,
थोड़ा समय चाहिए मुझको
कि पहले खुरच कर
निकाल पाऊँ मैं
वह पहाड़
जो अभी भी बैठा हुआ है
मेरी सोच
और इस कविता के बीच
फिर शायद
पोस्ट कर पाऊँगा मैं
तुम्हारे लिए वह कविता,
मुकाम पोस्ट - आलो,
जिला - वेस्ट सियांग
अरुणाचल प्रदेश के
सदर डाकखाने से
नहीं नहीं
पिनकोड जरूरी नहीं
ऐसी जगहें
बहुत ज्यादा नहीं होतीं।
**********************
आलंग
20/09/2012
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें