मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

एक समकालीन ग़ज़ल

 आज एक समकालीन ग़ज़ल -

ये मौसमों के बीच में मौसम नए-नए
हैरान कर रहे हैं मरासम नए-नए
दौरे-ख़िज़ाँ है, मौसमे-गुल भी है साथ में
किस्सा-ए-मुहब्बत में पेंच-ओ-ख़म नए-नए
कुछ उनकी इनायत है, कुछ हम भी बावफ़ा
ऐसे ही क्या मिले हैं रंजो-ग़म नए-नए
दुनिया का आदमी हूँ या बाहर की कोई शै
होने लगे हैं मुझको भी वहम नए-नए
हर बात पे मुक़ाबिल, हर बात पे नाराज़
ये मेरे शहरयार हैं, रुस्तम नए-नए
चलने में साथ ठोकरें, उलझन, ये हड़बड़ी
लाज़िम है मुश्किलें ओ हमकदम नए-नए
मौसम गुलों का पीली ये सरसों नई दुल्हन
इतरा रहा पलाश ज्यों बलम नए-नए
मरासम/मरासिम - ताल्लुक, दौरे ख़िज़ाँ - पतझड़, मौसमे-गुल - वसंत ॠतु, पेंच-ओ-ख़म - जटिलताएँ, मुक़ाबिल - सामने खड़ा, शहरयार - अधिकारी/मेयर, रुस्तम - ताकतवर, वीर

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