बैकुण्ठपुर में समकालीन साहित्य से जुड़े लोगों का अड्डा था 'ककउआ होटल'। जैसा कि नाम से ही अंदाज़ा लगा सकते हैं, यह कोई बड़ा होटल नहीं बल्कि केवल एक चाय-पकौड़ों की दुकान भर थी। पुराने बस स्टैंड में एक पुरानी खपरैल वाली दुकान, जिसके एक हिस्से में अमल-सुट्टे के शौकीन इकट्ठे होते और दूसरी तरफ सबके लिए खुले हिस्से में समकालीन साहित्य से जुड़े तत्कालीन साहित्यकारों का अड्डा जमता था। यह साहित्यिक जमावड़ा इंडियन काफी हाउस के स्तर से कदापि कम न था। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में इस बैठकी का प्रारंभ करने वाले प्रमुखजन थे श्री जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, कुरील जी, नेसार नाज़, जगदीश पाठक इत्यादि। समय के साथ इसमें और भी लोग जुड़ते-निकलते गए। नेसार नाज़ होटल के दोनो हिस्सों में बराबर लोकप्रिय थे। यहां पर नेसार नाज़ और जगदीश पाठक के बीच की साहित्यक नोंक-झोंक के किस्से आज भी कहे जाते हैं। अगर एक वागर्थ में छपी रचना पर इतराता तो दूसरा भीष्म साहनी की पत्रिका में छपने की शर्त लगाकर जीत जाता। फिर शर्त के पैसों से चाय-पकौड़े की पार्टी होना तो लाज़मी ही था। वैसे भी उस समय की आर्थिक परिस्थितियों में कवि-कोविद इससे बड़ा शौक कर भी नहीं सकते थे। समय के साथ इस कश्ती में स्वर्गवासी टेकचन्द नागवानी वगैरह जुड़े। टेकचन्द भी जगदीश पाठक की चुहलबाजी का अभिन्न अंग थे। इस अंतराल में नेसार नाज़ का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ जो काफी चर्चा में रहा। उस समय के कविता आन्दोलन में इस होटल में भी समकालीन कविताकर्म की कवायद होती थी। यहां कुरीलजी के साहचर्य में जीतेंद्र सोढ़ी जी की रचनात्मकता पनपी और संभवतः उनके हदय में मार्क्सवादी सोच का बीज भी यहीं पर पड़ा। बाद में ये लोग धीरे धीरे अलग अलग कारणों से दूर होते गए। कुछ स्थानांतरण की वजह से, तो कुछ पारिवारिक परिस्थितियों की वज़ह से। नगर के साहित्य ने इस बीच अगर कुछ सबसे ज्यादा खोया तो वह थी नेसार नाज़ की रचनात्मकता । ग़ज़ब की प्रतिभा, मोतियों जैसी हैंड रायटिंग और प्रभावशाली कहानियाँ, इन सबके छूट जाने की पीड़ा केवल एक ही वाक्य प्रकट कर सकता है - 'जाने किसकी नज़र लग गई नेसार भाई को'। आज भी पूरा कस्बा इस बात की गवाही देता है और अफ़सोस करता है।
जगदीश पाठक, जो कि भारतीय स्टेट बैंक में कर्मचारी थे, अस्सी के दशक के उत्तरार्ध में जब पुनः बैकुण्ठपुर स्थानांतरित हुए, तब उन्होंने पाठक मंच के माध्यम से नगर में साहित्यिक गतिविधियों को फिर से एक नई दिशा दी। इसमें कोई दो राय नहीं कि बैकुण्ठपुर में साहित्यिक गतिविधियों में जगदीश पाठक का विशिष्ट योगदान रहा। पर इस काल में गतिविधियों का केंद्र ककउआ होटल से हटकर कवि अजय नितांत की पान की दूकान और कचहरी पारा में जगदीश पाठक के निवास के इर्द गिर्द केंद्रित हो गया। इस समय भोला प्रसाद मिश्र, विजय त्रिवेदी, अजय नितांत, बशीर अश्क़, शैलेन्द्र श्रीवास्तव, यादवेंद्र मिश्रा, राम सिंह राजपूत इत्यादि कवि सक्रिय रूप से साहित्य से जुड़े थे। इनमें से कुछ अपनी प्रतिभा के लिये चर्चित थे और कुछ कविता के साथ साथ दीगर हरकतों के लिये भी। बाद में इसमें अली अहमद फैज़ी , रशीद नोमानी इत्यादि भी शामिल हुए। तब हम इन सभी की कविताएँ सुना करते थे। राम सिंह राजपूत जो देवास के रहने वाले थे और बैकुण्ठपुर में नौकरी करते थे, मनोरंजन का विशेष केन्द्र थे। ओज के कवि, 'घन घमंड घन गरजत घोरा' की तर्ज पर कहीं भी-कभी भी कविता सुनाने के लिए तैयार। उनसे जुड़ा एक वाकया याद आता है, जब दुर्गा पूजा के अवसर पर लोगों ने उन्हें लग्घे पर चढ़ा दिया और रामसिंह जी लग पड़े व्हॉलीबॉल के रेफ्री स्टैंड पर चढ़कर कविता सुनाने। किसी ने माइक-चोंगा भी जुगाड़ दिया। जनता ने समझा कि कोई बड़ा कार्यक्रम है और आनन फानन में सैकड़ों लोग मैदान में इकट्ठे हो गए। क्या युग था वह, जब जनता तमाशबीन बनने के लिए सहज ही उत्सुक रहती थी, डमरू बजा नहीं कि भीड़ लगी नहीं। मगर दो चार कविताओं के बाद जनता-जनार्दन को समझ आ गया कि यहां तो कविता हो रही है, वह भी कतई ना-क़ाबिले बर्दाश्त। सो जितनी तेजी से भीड़ लगी थी, उतनी ही तेजी से गायब भी हो गई। कुछ देर बाद किसी ने आजिज़ आकर माईक बन्द कर दिया, फिर किसी ने लाईटें भी बुझा दीं। पर राजपूत जी थे कि रूकने का नाम नहीं। कुछ दूर पर बैठे दुर्गा पण्डाल में डोमकच(डुगडुगी)बजाने वाले चार ग्रामीणों को, जो अपने ठिकाने पर थे और भागकर कहीं जा भी नहीं सकते थे, उन्होंने कई घण्टों तक बिना लाईट और माईक के कविताएँ सुनाईं। इससे अनुमान लगाइये कि उत्साह से कितने भरपूर थे वे कवि।
इस मंडली की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि रही बस स्टैंड पर कवि नितांत की दुकान के सामने पोस्टर कविता का प्रदर्शन, जिसकी याद आज भी नगर के लोगों के मन में बसी है। समय के साथ हुए साहित्यिक आंदोलन के क्षरण के साथ यहाँ भी कविता के गंभीर रूप पर मज़ाहिया और सतही कविताओं की छाया पड़ चुकी थी। रचनाओं के कंटेंट में मूल रूप से पाकिस्तान को गाली देना तथा युद्ध के लिये ललकारना, ईद और होली के हिसाब से सेंवई-गुझियों की बातें और नल-बिजली की तकलीफों के साथ साथ प्रत्येक दशहरे नेताओं को रावण का अवतार बताना, यही कविता की औसत हद थी। अम्बिकापुर से प्रकाशित होने वाली विजय गुप्त की 'साम्य' जैसी समकालीन पत्रिका को अबूझ और बकवास का विशेषण दिया जाता था। हालांकि 'साम्य' इन्हीं लोगों की आलमारी में इनके बुर्ज़ुआ होने की गवाही के रूप में शान से विराज़मान हुआ करती थी। मूल रूप से यह बैकुण्ठपुर की कविता का छन्न पकैया रौंड था। (डोगरी कवि सम्मेलनों में हास परिहास वाली कविताओं का सत्र छन्न पकैया रौंड कहलाता है, इसकी बच्चों को विशेष प्रतीक्षा रहती है)।
इस मंडली की सबसे उल्लेखनीय उपलब्धि रही बस स्टैंड पर कवि नितांत की दुकान के सामने पोस्टर कविता का प्रदर्शन, जिसकी याद आज भी नगर के लोगों के मन में बसी है। समय के साथ हुए साहित्यिक आंदोलन के क्षरण के साथ यहाँ भी कविता के गंभीर रूप पर मज़ाहिया और सतही कविताओं की छाया पड़ चुकी थी। रचनाओं के कंटेंट में मूल रूप से पाकिस्तान को गाली देना तथा युद्ध के लिये ललकारना, ईद और होली के हिसाब से सेंवई-गुझियों की बातें और नल-बिजली की तकलीफों के साथ साथ प्रत्येक दशहरे नेताओं को रावण का अवतार बताना, यही कविता की औसत हद थी। अम्बिकापुर से प्रकाशित होने वाली विजय गुप्त की 'साम्य' जैसी समकालीन पत्रिका को अबूझ और बकवास का विशेषण दिया जाता था। हालांकि 'साम्य' इन्हीं लोगों की आलमारी में इनके बुर्ज़ुआ होने की गवाही के रूप में शान से विराज़मान हुआ करती थी। मूल रूप से यह बैकुण्ठपुर की कविता का छन्न पकैया रौंड था। (डोगरी कवि सम्मेलनों में हास परिहास वाली कविताओं का सत्र छन्न पकैया रौंड कहलाता है, इसकी बच्चों को विशेष प्रतीक्षा रहती है)।
इस दौर में आकाशवाणी अम्बिकापुर के कार्यक्रमों का कांट्रैक्ट हासिल कर लेना ही काफी हद तक कवि का लक्ष्य और उसकी लोकप्रियता का पैमाना बन गया था। कोई अगले और कोई पीछे के दरवाजे़ से, बस किसी तरह एक कांट्रैक्ट हासिल कर लेना चाहता था। फिर तो छह-आठ महीनों में इसकी पुनरावृत्ति होती रहती और वह निरंतर कवि बना रहता, हर प्रसारण के पहले आकाशवाणी से रचना प्रसारण की सूचना स्थानीय अखबार में छपवाकर। मगर मेरा मकसद इस कथन के माध्यम से आकाशवाणी के महत्व को कम आँकना कतई नहीं है। आकाशवाणी अम्बिकापुर की सरगुजा और कोरिया जिले की ग्रामीण जनता में बहुत गहरी पैठ थी। इसका एक उदाहरण थी कवि भोला प्रसाद जी की कविता 'बंदवा बरात' अर्थात् दूसरा विवाह जो रेडियो सुनने वाले न जाने कितने ग्रामीणों की ज़बान पर सहज ही चढ़ गई थी। कवि जहाँ-जहाँ जाते, इस कविता की फरमाईश हो ही जाती। अंत में तो वे इसे सुना सुना कर दुखी हो गए थे।
इस पूरे अंतराल का सार यह मान सकते हैं कि प्रगतिशील लेखन का जो पौधा ककउआ होटल में बोया गया था, वह अब कुम्हला रहा था। लेकिन जैसा कि इंसान का चरित्र है, उसके इकट्ठे होने की जगह पर मतभेद और मनभेद दोनों पहले ही आ धमकते हैं, यह मंच भी कई विभाजन का शिकार हुआ, कभी हिन्दी और उर्दू के नाम पर तो कभी किसी और वज़ह से। अंततः जगदीश पाठक जी के मनेंद्रगढ़ स्थानांतरण के बाद एक समय ऐसा आया कि नगर की साहित्यिक गतिविधियाँ बिल्कुल ही शिथिल पड़ गईं।
मगर इस शून्यकाल में भी दो कवि अपनी निरंतरता अवश्य कायम रख सके - प्रगतिशील धारा के कवि जीतेंद्र सिंह सोढ़ी, जो कभी नेपथ्य में रेडियो के माध्यम से तो कभी मंच पर , सदैव ही सक्रिय रहे। कम्युनिष्ट पार्टी के महासचिव होने के कारण वे मज़दूर आंदोलन से निरंतर जुड़े रहे और प्रगतिशील कविता से उनका जुड़ाव सहज था। सोढ़ी जी अच्छे कवि होने के साथ साथ बहुत अच्छे इन्सान भी हैं। सोढ़ी जी ने कुछ बहुत गंभीर रचनाएँ लिखीं, जो हमें आज भी याद हैं, जो हमारी पथ प्रदर्शक हैं। दूसरे कवि जो निरंतर रचनाकर्म में लगे रहे थे, वे थे भोला प्रसाद मिश्र अर्थात् अनाम जी। अनाम जी ने स्थानीय अखबारों और आकाशवाणी के माध्यम से नगर के कविता जगत में अपना अलग स्थान बनाया भी और उसे बरकरार भी रखा । शिक्षकीय पेशे से जुड़े होने के कारण और साथ ही साथ संगीतकार होने के कारण ,शासकीय आयोजनों में इनकी विशेष पूछ परख थी। सरस्वती वन्दना, अभिनन्दनगीत इत्यादि तो इनके बगैर होते ही नहीं थे।
इधर नब्बे के उत्तरार्ध में सागर विश्वविद्यालय से अपनी पढ़ाई पूरी कर मैंभी वापस बैकुण्ठपुर आ चुका था। नौकरी लगी नहीं थी, सो समय पर्याप्त था। संयोगवश मेरी मुलाकात भाई ताहिर आज़मी से हुई। पेशे से शिक्षक, उर्दू की तालीम में अव्वल और मिज़ाज से एकदम मस्तमौला। मूलरूप से आजमगढ़ के रहने वाले और सरगुजा-कोरिया में पले बढ़े। आजमगढ़ में सरगुजा के लिए और सरगुजा में आजमगढ़ के लिये मर मिटने वाले। मेरे ही मुहल्ले में एक छोटा सा खपरैल-मिट्टी वाला कमरा किराए पर लेकर रहते थे। उन्होंने उसी कमरे में मुझे ग़ज़ल के रदीफ़-काफि़ये सिखाए, खैनी घिसते हुए। ताहिर मियां गज़ब के पढ़ाकू थे, ग़ालिब और कैफ़ी आजमी के शेरों से लेकर तीसरी क़सम और लाल पान की बेगम का एक एक संवाद उन्हें याद था। तीसरी कसम के बड़े मुरीद, 'ए हो केतना सुंदर लिखा है' - जि़क्र आते ही बोल पड़ते। सैकड़ों ग़ज़लें और कताएं उन्हें मुंहज़बानी याद थीं। इतने बड़े बड़े शायरों को इस कदर पढ़ने वाले ताहिर भाई का पसंदीदा शेर उन्हीं की तरह बड़ा सादा सा था, शायद मुनव्वर राणा का लिखा -
अमीरों की हवस सोने की दूकानों में फिरती है,
ग़रीबी कान छिदवाती है, तिनके डाल लेती है।
ताहिर भाई पढ़ने के ऐसे कीड़े थे कि कुछ नहीं मिलता तो मनोहर कहानियाँ, सुरेन्द्र मोहन पाठक और जेम्स हेडली चेइज़ का ही छौंक लगा देते थे। किसी से कोई दीवान माँग कर ले गए तो फिर वापस आना नामुमकिन। सैकड़ों किताबों के अम्बार में कहीं गुम। ज्यादा पूछने पर एक ही दादागिरी - 'अरे हो, दुनिया की सारी किताबें मेरी ही तो हैं'। बाद में उन्होंने बैकुण्ठपुर में ही थोडी़ सी ज़मीन लेकर घर बना लिया। घर भी अपने स्वभाव के अनुरूप ही बनाया, श्मशान भूमि के सामने प्रेमाबाग के बगीचे में स्थित ऐतिहासिक शिवमंदिर के पीछे ताहिर भाई का मकान, अकेला। वहां, जहां लोग दिन में भी जाने से डरते थे, वहाँ ताहिर भाई का रात दिन का डेरा। देर रात तक मेरी और ताहीर भाई की बैठकें उस बगीचे में चलती रहतीं और लोग हमें भूत-भयार समझते रहते।
ताहिर भाई ने मेरी मुलाकात करवाई चचा रशीद नोमानी से। बिहार के किसी गाँव से आकर नोमानी जी कोरिया जिले में बस गए थे। पहले बैकुण्ठपुर के पास स्थित चरचा कालरी में स्थित मस्जिद के हाफिज़ थे, फिर बैकुण्ठपुर के लकडि़यों के दिलदार व्यापारी नूरुल हुदा जी चचा को बैकुण्ठपुर ले आए, उनके घर के पास बनी एक मस्जि़द में। उसी मस्जि़द के बाहर बनी दो दुकानों में से एक चचा को दी गई थी। वहीं चचा की छोटी सी किराने की दुकान खुली, दुकान भी और आशियाना भी। मैं और ताहिर भाई हर शाम बिलानागा पहुंचकर उनकी इकलौती खटिया पर डट जाते, टीन के डब्बे से लेकर चन्नवा चबाते हुए। चचा ने भी बैकुण्ठपुर में ही एक छोटा सा घर बना लिया था। नगर के एक सिरे पर स्थित पेट्रोल पंप के बगल में उनका घर था और दूसरे सिरे में स्थित पेट्रोल पंप के बगल में उनकी मस्जि़द, जिसके कि वो इमाम थे। इन्हीं दोनों पेट्रोल पंपो के बीच कैद थी चचा नोमानी की दुनिया। चचा मालोज़र से तो बहुत बड़े इन्सान नहीं थे, लेकिन दिल तो शायद दुनिया से भी बड़ा था। दुकान तो केवल एक माध्यम था खुद को व्यस्त रखने का। मस्जि़द में पांच वक्त की नमाज़ पढ़ाते, थोड़ा समय निकाल कर बच्चों को उर्दू वगैरह सिखाते, और उससे बचे समय में ग़ज़लें और हज़लें गढ़ते। चचा की सोच शानदार थी और सारा कुछ मुँहज़बानी याद; कोई डायरी नहीं, कोई दीवान नहीं। अखबारों की क़तरनों के सिवा शायद हीं कही उनका लिखा कुछ मिल पाए। बहुत महात्वाकांक्षी थे भी नहीं। बच्चों को हज़ल भी उतने ही मज़े से सुनाते जिस तरह से शायरी की महफिल में ग़ज़लें। चचा की एक और खास बात थी, हर जाने वाले का स्वागत वो कुछ न कुछ खिलाकर ही करते थे, कभी बरनी से एक तिल का लड्डू, तो कभी हाजमोला कैंडी। चचा ने मुझे भी ग़ज़ल की कई बारीकियाँ सिखाईं।
मुद्दे पर आएँ तो अचानक अब फिर से नगर में सोये पडे़ साहित्यिक माहौल ने अंगड़ाई लेना शुरू कर दिया था। मैंने भी कुछ शुरूआती अधकचरा रचनाएँ, मसलन कविताएँ, ग़ज़लें इत्यादि लिखीं। यह सब देख कर एक दिन अचानक स्थानीय साहित्य के सोए हुए खिलाड़ी जागने लगे, जिस स्थान को वे सुरक्षित रखकर सोये थे शायद उसे और भी सुरक्षित करने के लिए।
एक फिर नगर में गोष्ठियों का दौर प्रारंभ हो चुका था। ककउआ होटल एक बार फिर गुलजार होने जा रहा था। उस समय बैकुण्ठपुर में ग़ज़लगोई का बड़ा प्रचलन था। हर दूसरा लिखने वाला एक ग़ज़लगो। जगदीश पाठक का समय प्रमुखतया हास्य-व्यंग्य का था, अब चचा नोमानी का दौर था कि हर कोई सिर्फ ग़ज़लों पर ही ज़ोर आजमाईश करना चाहता था। अम्बिकापुर के कवि लेखक और पत्रिका 'परस्पर' के सम्पादक प्रभु नारायण वर्मा सदैव मुझसे मज़ाक में कहा करते कि 'यार बैकुण्ठपुर में इतने ज्यादा शायर क्यों होते हैं'। दरअसल, उन दिनों कवि गोष्ठियों में 'तरह' देने का चलन था, अर्थात सबको एक मिसरा दिया जाता और बाकी शायर उस पर अगली गोष्ठी में ग़ज़ल लिखकर लाते। बाद में इन्हीं ग़ज़लों की पंक्तियाँ नवभारत और दैनिक भास्कर में विज्ञप्ति के रूप में सबके नाम के साथ छपवा दी जाती थीं। बस इतनी ही छपास थी ज़्यादातर कवियों में। इस 'तरह' के चक्कर में ऐसे ऐसे बेतरह शेर लिखे जाते कि बस पूछिये मत। मुझे एक ऐसी ग़ज़ल का शेर याद आ गया जिसे पढ़कर आप समझ सकते हैं कि क्या क्या हुआ करता था उन गोष्ठियों में -
पत्थर को तोड़ के शीशा बना दिया
लोगों ने उस को तोड़ के भाला बना दिया
सोच देखिये शायर की ! शायरी में मानवविज्ञान तक की पैठ। कवि पत्थर तोड़ कर भाला बनाने वाले आदिम युग को भी ग़ालिब की मुलायम ग़ज़ल की तरह पेश कर देते थे। इस शेर को ताहिर मियां, मैं और चचा नोमानी बरसों याद करते रहे।
इस पूरे वाकये में, नगर का इकलौता साहित्य मंच अब नवागंतुकों और पुराने चावलों के बीच रस्साकशी का मैदान ज्यादा बनता जा रहा था। ज़्यादातर पुराने न तो कुछ लिखना चाहते थे और न ही नवागंतुकों के लिए रास्ता छोड़ना। कुछ एक गोष्ठियाँ हुईं। उसके बाद जाने क्यूं छिप-छिप कर गोष्ठियों के दौर शुरू हो गए। इधर ताहिर भाई के तीखे व्यंगबाणों ने लोगों को इस कदर घायल किया कि लोग इसी को ढाल बनाकर किनारा काटने लगे। एक कवि ज़रा कम पढ़े लिखे थे, इस वजह से कहीं न कहीं से कोई न कोई शिकायत खोज कर बहानेबाज़ी करते, कि फलाने नहीं आयेगा तभी वह गोष्ठी में आयेंगे। अब फलाने को मना किया तो ढकाने को पकड़ लेते। पता नहीं लोग क्यों इनकी इतनी मालिश किया करते थे, आज तक समझ नहीं आया। इधर ताहिर भाई भी अपनी तरह के एक ही थे, एक दिन इनके सामने मिसरा ही बोल दिया कि 'इल्म अव्वल है शाइरी के लिये'। बस उन्होंने कसम ही खा ली कि जहाँ ताहिर जाएगा वहाँ वे नहीं जाएंगे। इसी तरह एक कामपीड़ित कवि थे, फिराक़ गोरखपुरी के मुरीद, न जाने क्यों एकांत ही खोजा करते थे। ऐसे ऐसे तो काम। मगर आश्चर्यजनक! यह बात बोलने पर तो सारा कुनबा ही हमारे ही उपर आ गया! अब बुज़ुर्गों को फैसला लेना था। फ़तवा तो जाना ही था उद्दंडई के खिलाफ, जो कि निस्संदेह हम करते थे, और वह गया भी। तब पहली दफ़ा पहले कहीं पढ़ी हई बारह संतों की कहानी याद आ गई - 'जब ग्यारह संत पाखाने जाने के गड़वे से पानी पिएँ, तो बारहवें को पवित्रता नहीं हांकनी चाहिये'। संख्याबल के आगे तो बड़े बड़े नतमस्तक हो गए फिर हम किस खेत के ढेले थे। यह हमारा पहला गंभीर सबक था।
अब मैंने और ताहिर भाई ने 'स्पंदन' नाम से साहित्यिक समिति बनाई। चचा नोमानी हमारे साथ थे, साथ में अली अहमद फैज़ी, हन्फी जी, शुजाअत, गीता प्रसाद नेमा, दीपक राजदान, वाजिद पलामुवी वगैरह जुड़े। कुछ गैर साहित्यिक सज्जनों का भी साथ मिला जिनमें सबसे उल्लेखनीय हैं काव्य-गीत-संगीत प्रेमी भाई घनश्याम जायसवाल जी और उनके साढ़ू साजी तिवारी। कारवाँ जोड़ने की कवायद में सोढ़ी जी से भी मुलाकात हुई। नितांत सरल, सज्जन व्यक्तित्व, जनवादी कवि और पक्के मार्क्सवादी। सोढ़ी जी कोयला श्रमिक आन्दोलन से जुड़े थे व सी.आई.टी.यू. के प्रदेश महासचिव थे। दीगर यूनियन लीडरान जहां टाटा सूमो और अन्य महंगी गाडि़यों में घूमते थे , सोढ़ी जी के पास केवल एक वेस्पा स्कूटर था। अनुमान लगा सकते हैं, सीटू के प्रदेश महासचिव के पास केवल एक वेस्पा स्कूटर। श्रमिक आन्दोलन से जुड़े होने की वज़ह से कभी अधिकारी बनने के लिए प्रमोशन नहीं लिया। सोढ़ी जी ने स्पंदन साहित्यिक समिति को नया नाम दिया 'जनवादी लेखक संघ'। ककउआ होटल फिर से आबाद हो रहा था और अब इसकी कमान थी हमारे हाथों में। हम दोनों का नित्य का काम था वहाँ बैठना। मौका मिलते ही सोढ़ी जी भी पहुंच जाते थे। नेसार भाई खाली वक्त में मिलते थे। पर अब उन्होंने रचना कर्म त्याग ही दिया था। हाँ, हम उनकी फलानेवाले इत्यादि गालियाँ खाने का मज़ा ज़रूर चख लेते थे। बाकी मित्र भी आया करते थे। शाम को हम चचा नोमानी के पास पहुँच जाते। कुल मिला कर साहित्यिक गतिविधियाँ जोर पकड़ने लगीं थीं। इस बीच हमने लघुपत्रिका 'आलाप' निकाली, पर अफ़सोस कि स्तरीय रचनाकर्म के अभाव में यह पत्रिका अल्पजीवी ही रही। 'आलाप' के विमोचन का एक वृहद कार्यक्रम आयोजित हुआ था। इस कार्यक्रम में कोरिया और सरगुजा जिले के कई नामी साहित्यकारों ने उपस्थिति दर्ज कराई जिसमें प्रभुनारायण वर्मा, आनंद बहादुर ,श्याम कश्यप बेचैन,जगदीश पाठक इत्यादि शामिल थे। इसी बीच मेरा एक ग़ज़ल संग्रह भी आया, जनवादी लेखक संघ , जिला कोरिया के बैनर तले, जिसका खूबसूरती से सम्पादन किया था भाई ताहिर आजमी ने। सोढ़ी जी का महत्वपूर्ण कविता संग्रह 'हाजिर है समन्दर' भी इसी दौरान प्रकाशित हुआ, जिसका आमुख श्री राजेश जोशी ने लिखा था।
कुल मिलाकर फिर से पुराने दिन लौट आए थे। ककउआ होटल के भी और साहित्य के भी। मैंने अपना छोटा सा व्यापार भी आरम्भ कर दिया था। सस्ते में एक पुरानी फिएट कार भी खरीद ली। बस उसी में सारे के सारे लद के कहीं भी चल पड़ते थे। नगर में एक से एक नई कारें प्रवेश कर रहीं थी, पर अपनी फिएट तो अपनी थी , द बेस्ट। हमने उसे नाम दे रखा था 'काव्यम्'। कहीं गोष्ठियों से बुलावा आए तो चल पड़ते थे 'काव्यम्' में लदे-फंदे। कई साहित्यिक यात्राएं कीं 'काव्यम्'में साथ बैठ कर ।
इस दौरान कई खट्टे-मीठे अनुभव हुए। एक बार मैं और ताहिर भाई, दोनों चिरमिरी से लौट रहे थे, होली के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में कविता पाठ करके । छोटा नागपुर रेलवे क्रॉसिंग पर देखा, कुछ लोग लहूलुहान चले आ रहे हैं। पूछने पर पता चला कि रात वाली पैसेंजर दुर्घटनाग्रस्त हो गई है। दुर्घटना की जगह पास ही थी। हम गाड़ी वहीं पर पार्क कर चल पड़े दुर्घटना स्थल पर। दोनों दुर्घटनास्थल पर पहुंचने वाले पहले लोग थे। बड़ा भयावह दृश्य था वहां का। ट्रेन का आधा डिब्बा टूट कर पुलिया के उपर लटक रहा था, और आधा नदी में गिरा हुआ था। पांच-छः डिब्बे ऊपर पटरियों पर पलटे हुए पड़े थे। एक
डिब्बा पूरा का पूरा नदी मे गिरा हुआ है। गनीमत है कि ज़्यादातर लोग घायल तो हुए थे, पर बच गए थे; एक दो मौतों को छोड़ कर। बाद में पीछे से रेस्क्यू टीम आ पहुंची और पुलिस बल भी। पहले तो हमसे ही ठीक-ठाक पूछताछ हो गई कि हमने कुछ माल वाल तो नहीं उड़ाया या कोई दूसरी गड़बड़ तो नहीं की। वहां से छूटे तो रेस्क्यू टीम में उपस्थित एक नवागत कवि ने पकड़ लिया। अविश्वसनीय लगेगा सुनकर कि उस भीषण समय में भी उसने हमें तारों के उपर एक औल-फ़ौल तात्कालिक कविता सुनाकर वाहवाही लूट ली। तब मैंने और ताहिर भाई ने मान ही लिया कि कविता कोई ऐसी वैसी चीज़ नहीं, बहुत विचित्र नशा है।
एक और अनुभव मज़ेदार है। मनेंद्रगढ़ के एक कवि ने हमें एक कार्यक्रम में कविता पाठ के लिए बुलाया। बताया गया कि फलाँ तारीख को इतने बजे आप लोगों कार्यक्रम है, आने जाने का खर्च दिया जाएगा, वगैरह-वगैरह। फिर क्या था, चल पड़ी 'काव्यम्' मुझे और ताहिर मियाँ को लाद कर । जब वहाँ पहुँचे तो देखा कि बड़ा भव्य आयोजन है, भइया सतीश जायसवाल जी (तब बख्शी सृजनपीठ के अध्यक्ष) मुख्य अतिथि हैं। बड़े बड़े कविगण पधारे हैं-जांजगीर से दादा नरेंद्र श्रीवास्तव, विजय राठौर वगैरह। अब हमें पता चला कि हमें तो धोखा दिया गया है और कार्यक्रम में भीड़ बढ़ाने के लिए नगीना बना कर बुलाया गया है। बड़ा क्रोध आया, ताहिर भाई के बार बार कहने पर भी हम वापस नहीं हुए और फिर रुककर कार्यक्रम की खूब धज्जियाँ उड़ायीं। जिस कवि को हिट करना था उसके कचरे पर भी वाह वाह, जिनसे बैर था, उनके कुछ भी पेश करने पर सब मौन। जनता को तो कविता की समझ थी नहीं, सो वह भी हमारा अनुसरण करने लगी। सोचा होगा कि अगर इन समझदारों का साथ न दिया तो शायद काव्यप्रेमी न कहलाएँगे। हमारे जैसे और भी कुछ दिल जले थे, वे भी साथ हो लिए। फिर क्या था, अब तो कार्यक्रम नीचे से संचालित हो रहा था। दूसरे दिन विचार गोष्ठी रखी गई थी। धृष्टतापूर्ण वाक्आडंबर से हमने गोष्ठी के मूल प्रश्न को ही निरर्थक साबित कर कार्यक्रम का समापन कराया। आयोजक महोदय का तो चेहरा देखते ही बनता था। सतीश जायसवाल जी से उसी कार्यक्रम में जो पहचान हुई, जो आज तक बड़े आत्मीय संबंध के रूप में कायम है। शायद भइया इस संस्मरण के बाद समझ पाएंगे उस शाम का सच। या शायद वो अपनी अनुभव दृष्टि से शायद उसी दिन भांप गए हो, कौन जाने? अंत में कार्यक्रम समापन के बाद घर चलते हुए शायर कासिम एलाहाबादी के साथ सड़क के किनारे चाय पी। वो शहडोल से हैं , कपड़े सिलने का काम करते हैं और एक उम्दा शायर हैं। उन्होंने सारा वाकया जानकर कहा -'मिश्रा जी, आपके अन्दर ज़र्फियत की कमी है'। मेरी उर्दू तो इतनी अच्छी है नहीं और सीधे सीधे कमज़र्फ कहा होता तो शायद समझ गया होता। ताहिर भाई से पूछा तो वो टाल गए। आज कासिम भाई की कही बात समझ में आती है, और साथ में शर्म भी।
लौटने के बाद चिरिमरी के कुछ कविमित्रों ने बताया कि ऐसा करना तो उन कवि महोदय का शौक है, वे पहले भी औरों के साथ ऐसी करतूत कर चुके हैं। फिर क्या था, बदले की आग में जलते हुए हमने बैकुण्ठपुर में विशेषरूप से एक कार्यक्रम आयोजित किया। उस आयोजक को मीठी मीठी बातों में फाँस कर बुलाया, उनके नगर के कई कवियों के साथ। इसके बाद सारे आमंत्रितों को मंच पर बैठाकर सम्मानित किया, उनको छोड़कर। उन्हें सबसे आखिरी में कविता पढ़ने को बुलाया, तब जब केवल इंतज़ाम अली अर्थात दरी बिछाने वाले ही बाकी बच गए थे। तब कहीं जाकर कलेजा ठण्डा हुआ। आज यह सब सोचता हूं तो खुद पर हंसी आती है, और शायद उससे कहीं ज्यादा अपने ही ऊपर तरस भी आता है।
इस बीच एक दो महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में भी जाना हुआ। दरअसल, पास के नगर अम्बिकापुर में भी एक सक्रिय साहित्यिक बिरादरी है, जिसके अगुआ हैं श्री विजय गुप्त, अनिरूद्ध नीरव, प्रभुनारायण वर्मा, आनंदबहादुर और श्याम कश्यप बेचैन इत्यादि। इन्होंने साहित्यिक पत्रिका 'परस्पर' का विमोचन कार्यक्रम रखा था जिसमें वरिष्ठ कथाकार संजीव मुख्य अतिथि थे। काव्यपाठ में बैकुण्ठपुर से सोढ़ी जी और मेरा नाम था। अचानक कार्यक्रम के ठीक पहले आनंद बहादुर जी ने मेरे सामने एक विषम परिस्थिति खड़ी कर दी। उन्होंने आग्रह किया कि उनके कार्यक्रम के साथ साथ ही, बैकुण्ठपुर में पश्चिम बंगाल के एक शायर रौनक नईम का एक समानांतर कार्यक्रम रखें और खर्च की व्यवस्था करें। इससे रौनक जी का 'परस्पर' के विमोचन कार्यक्रम में आना सहज हो जाता। बड़ी असमंजस की स्थिति थी। धन और जन दोनों से ही कमज़ोर थे हम। हिम्मत भी करते, तो भी अचानक इतना बड़ा आयोजन करना कठिन था। हमारे लिए यह ठीक वैसा ही था जैसे हुगली के स्टीमर को बैकुण्ठपुर के गेज नाले में तैराना। अंततः माफी ही मांगनी पड़ी। बेमन से कार्यक्रम में गए और जैसा कि अपेक्षित था, आनंद बहादुर नाराज थे-लगातार मुंह बिचकाते रहे। मैं उनकी सोच को समझ सकता हूं और यह अफ़सोस आज भी रहेगा कि हमने इतने अच्छे ग़ज़लगो से मिलने का मौका गवाँ दिया, शायद आज की आर्थिक परिस्थिति में ऐसा कतई न होने देते। रही बात संजीव दा के सामने कविता पढ़ने की, तो वह एक अलग ही अनुभव रहा, उसका जि़क्र फिर कभी। जो भी हो, इस सब के बीच प्रभुनारायण वर्मा जी और श्याम बेचैन जी जैसे मन के सच्चे , सरल और स्पष्टवादी साहित्यकारों से परिचय बढ़ा और काफी मार्गदर्शन भी मिला।
और एक घटना , एक बार नगर में देशबन्धु के सम्पादक सुरजन जी पधारे। यूँ कह लीजिए कि आए, थोड़ा रूके और आगे बढ़ गये। जिनको जानकारी थी, उन्होंने छिपा कर रखा। सुरजन जी के जाने के बाद यह रहस्योद्घाटन किया गया कि वे आए थे, कुछ विशिष्ट लोगों से मिले थे। कहावत याद आ गई - 'बउरे गाँव ऊँट आवा, कोउ देखा कोउ देखबौ न भ'(पागलों के गाँव में ऊँट आया, किसी ने देखा किसी ने देखा भी नहीं)। बड़ी कोफ़्त हुई। अब लोग तो चर्चाओं में सुरजनजी की ही बात करते, और दूसरे कि वे उन लोगों से मिलकर गए हमसे नहीं, हमको भला कौन जानता है। बाद में इस से निबटने का मुझे एक ही तरीका दिखा। मैंनें सुरजन जी की पत्रिका 'अक्षरपर्व' व पत्र 'देशबन्धु' के रविवारीय संस्करणों में छपी ग़ज़लों और कविताओं का पुलंदा बनाकर एक दिन सबके सामने रख दिया। तब जाकर शांत हुए सब। (प्रसंगवश, 'अक्षरपर्व' में छपी एक रचना 'नक्सलाईट बेल्ट में' के लिए मुझे देश भर से प्रतिक्रियाएँ मिली थीं, जिसमें सबसे उल्लेखनीय था श्री रघु ठाकुर का कार्डपर लिखा पत्र)
लब्बोलुआब यह कि इस कालखण्ड में हम कविता को जी रहे थे। इस कदर दीवानगी थी कि ऊलज़लूल हरकतें करने से भी बाज़ नहीं आते थे। जबकि दूसरे गुट के छल-कपट की वजह से कभी-कभी कविगण हमसे किनारा कर लेते थे, ऐसी आपात् स्थिति से निबटने के लिए खुद ही कुछ रेडीमेड कविताएँ लिखकर रखते थे और कुछ स्कूली लड़कों को बुलाकर ये तैयार कविताएँ उन्हें पकड़ा देते थे। एक बार स्कूल के हिंदी अध्यापक आदित्य नारायण मिश्र जी गोष्ठी में आमंत्रित किए गए। अब हमारे डुप्लीकेट कवि जो उनके छात्र भी थे, ऐन वक्त पर उन्हें देख कर भाग खड़े हुए। बडी़ मुसीबत हुई। किसी तरह से समझाबुझा कर उन्हें पकड़ कर लाया गया। बाद में मिश्र जी ने मुझसे पूछा कि, 'बेटा सब तो ठीक है लेकिन ये लड़के तो क्लास में ठीक से हिंदी भी नहीं पढ़ पाते, ये कविता कब से करने लगे'। ताहिर भाई ने किसी तरह से गोलमाल कर बात बनाई, पर मिश्रजी हौले हौले मुस्कुराते ही रहे। ये बात खर और दूषण अर्थात मुझे और ताहिर भाई को छोड़ कर और किसी को पता नहीं चली, न सोढ़ी जी को, न चचा नोमानी को और न ही दीपक राज़दान जी को।
आप मेरा भरोसा रखें कि इन सारी बातों के बीच कविता ज़रूर हो रही थी, वर्ना यहां तक का लिखा सब व्यर्थ हो जाएगा। इस मंच के कवि कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे जिसमें प्रगतिशील वसुधा, कृतिओर, काव्यम्, उद्भावना, आंकठ, सर्वनाम, अक्षरपर्व इत्यादि पत्रिकाएँ प्रमुख थीं। संयोगवश इसी दौरान मेरी नौकरी लगी। माँ की इच्छा , 'काव्यम्' कोलकाता के संपादक डा. प्रभात पांडेय की सलाह और जबलपुर हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस पी.एन.एस चौहान जी की निरंतर सद्प्रेरणा की वजह से मैंने नौकरी करने का मन बना लिया था। एक दिन इसी जुगत में कश्मीर के जिला डोडा-रामबन पहुंच गया, बगलिहार जल विद्युत परियोजना में कार्य करने। जाते जाते काव्यम् को बेच गया, बगलिहार ले जाना मुश्किल था और फिर घर में उसे चलाता भी कौन। नई नौकरी, नौकरी कम और गुलामी ज़्यादा थी। सुबह साढ़े सात बजे साईट पर खड़े होना और शाम साढ़े आठ बजे पाली बदलना, बारह घण्टे की नौकरी। घर आने जाने का समय अलग। परिन्दे के पर कटने शुरू हो गए थे। आप ही बताएं कि कविता होती तो होती कहां पर। हां, कविता मन में अवश्य होती थी, बुलबुलों की तरह उठती और घुल जाती।
जब पहली छुट्टी में घर आया तो पता चला मेरे जाने के बाद नगर में एक भी गोष्ठी नहीं हुई थी। ताहिर भाई अकेले पड़ गए थे। सोढ़ी जी भी संगठन के कामों में ज्यादा व्यस्त हो गए। इस बीच उनकी कुछ कविताएं कृति ओर में प्रकाशित हुईं। चचा नोमानी बीमार रहने लगे थे। दीपक राजदान जी के छत्तीसगढ़ी गीतों का एक कैसेट जरूर आया था। फैज़ी बेटे की पढ़ाई के पीछे परेशान थे। शुजाअत पहले से ही व्यस्त हो चुका था। दूसरा दल भी संभवतः अपनी पारिवारिक और आर्थिक परिस्थितियों के आगे घुटने टेक चुका था। एक-दो बार सबसे मिलकर प्रेम बहाल करने की कोशिश भी की, पर महसूस हुआ कि चोट गहरे पैठी है, समय लगेगा।
निकष यह कि इस लम्बे सफर का साक्षी ककउआ होटल फिर से महज़ एक होटल रह गया । साल-दर-साल बीतते गए। चचा नोमानी गुज़र चुके हैं, उनके साथ जुड़ी बहुत सी यादें है जो फिर कभी लिखूँगा। ताहिर परिवार की जि़म्मेदारी सम्हाल रहे हैं। सोढ़ी जी से ज्यादा मुलाकात नहीं हो पाती। ककउआ होटल आज भी आबाद है , पर बीसवीं सदी से इक्कीसवीं में कदम रख कर भी अपने मूल स्वरूप को नहीं बदल पाया है। उसका तब का मेन्यू भी आज तक नहीं बदला - चाय, भजिया और पेड़ा। लाज़वाब स्वाद। ईमानदारी से बरकरार रखा गया स्वाद। शायद यही ईमानदारी रोड़ा बन गयी इसके कायाकल्प में। तीन भाईयों की साझा विरासत है यह होटल। बड़ा रमेश , मझला पप्पू और छोटा कमल। रमेश सबसे होशियार है और फिर यह बात मझले से लेकर छोटे तक घटती जाती है। छोटा भाई कमल मानसिक रूप से विकलांग है। बीच में उसे मानसिक विकलांगता का प्रमाणपत्र दिलाने की कोशिश की गई, पर असफलता हाथ लगी। दरअसल उसने डॉक्टर के दिखाए दस रूपए के नोट को सही-सही पहचान लिया था। वह आज भी बिना परिवार बिना-वेतन का मज़दूर है, ख़ुराकी मज़दूर । कमल जब पिछली बार मिला था तो उसने सगर्व बताया कि पिछले विधानसभा चुनावों में उसने कम्युनिष्ट पार्टी के मंच से दिया गया सोढ़ी जी का भाषण विशेष रूप से जाकर सुना था। वह आज भी हमारी बड़ी इज्ज़त करता है क्योंकि उसे भी तो ध्यान से सुनने वाले तीन ही लोग थे - सरदारजी, मियां और महराज।
पद्मनाभ गौतम
अलांग, अरूणाचल प्रदेश
25.09.2012
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