गुरुवार, 27 सितंबर 2012

कुछ नई कविताएँ ...


दुनिया से अलग

सात बहनों के
कुटुंब की है जो
जीवन रेखा,
इन दिनों
लोहित है नाराज़।

पाँच दिनों से
अँधेरे  में हैं हम,
और कोने में पड़ा  इन्वर्टर
बता रहा है कंधे उचका कर
हमारे लिए
विज्ञान की सीमा।

नाराज लोहित ने भी तो
दिखाई है हमे
प्रकृति की सीमा ही

बंद है
इन दिनों डिब्रूगढ -आलंग सड़क
और हैं बंद
रसद की गाडियाँ ।

केवल लाही पत्ता
और केले के फूल
पक रहे हैं
सब्जियों के नाम पर

फोन की सारी लाईनें पड़ी हैं बेकार

बमुश्किल मिल पा रही हैं
बाहर गाँव की खबरें,
इडियट बॉक्स
पड़ा है कोने में
खामोश,

इन दिनों
हम दिन रहते
निपटा लेते हैं सारे काम,
जल्दी खा पीकर
घुस जाते हैं
कम्बल में साँझ को ही,

मोमबत्तियाँ लड रही हैं
हमारी खातिर अँधेरों से

ढेर सारी बातें
करते हैं हम
इन दिनों,
करते हैं बातें
उन औरतों की
जिन्होंने करके
लालटेन के उजाले में
कपड़ों पर तुरपाई
पाल लिए
अनाथ बच्चों के
पेट,
याद आ जाती है
बरबस
निरूपाराय के
होंठो  में दबे
सुई और धागे की

बच्चे जान रहे हैं
आदिमानवों के बारे में
कि किस लिए
और कैसे जलाई होगी
उन्होंने
पहली बार आग

आज भी
खा पीकर
घुस गए हैं हम
बिस्तर में,
पत्नी पास बैठकर
गा रही है कोई
अजूबा फिल्मी गीत,
और चिढ़ाती है लेकर
पूर्व प्रेयसी का नाम

हँस रहा हूँ हौले हौले
इस शरारत पर,
यह सोचते हुए कि ,
सचमुच
कितने खूबसूरत हैं ये दिन

ये अँधेरों के दिन

कभी कभी अच्छा लगता है
रहना
दुनिया से अलग
अँधेरों  के साये में।

आलंग
अरूणाचल प्रदेश
२५.०९.२०१२




किंडरजॉय

किन्डरजॉय के लिए
मचल गई है बिटिया
दुकान के सामने,
और मैं समझा रहा हूं उसे
पाँच रूपए के
सामान के पीछे
पच्चीस की
मार्केटिंग का गणित,
कि खरीद ले वह
इसी दाम की
कोई और चाकलेट
जिसमें हो
ईमानदारी से
टैक्स भरकर
कमाए रूपए की
पूरी कीमत वसूल ।

दुकान पर बैठी महिला
करती है
मुझ पर
कटाक्ष,
कि नहीं पूछूँ मैं      
एक चॉकलेट का दाम,
जिसकी कीमत
पैसठ रुपए सुनकर
हो सकता है
मेरा हार्ट फ़ेल

"आप लोग तो हमेशा
कम दाम की चीज़
खोजते हैं ना"।

सुनकर  हूँ
अवाक
कि किस तरह
धो दिए गए हैं
हमारे दिमाग,
कि रह गया है
हैसियत का पैमाना
सिर्फ और सिर्फ
अंधाधुंध खर्च।

क्या बताऊँ उसे
कि इस तरह
सिखा रहा हूँ मैं
विपरीत परिस्थितियों में
जीने की वह कला,
जो शायद
एक गरीब मास्टर का
आत्मज ही
सिखा सकता है
अपनी आत्मजा को।

क्या बताऊँ कि
सीख रही है मेरी बेटी
उस देश मे जीने का हुनर,
जिसने मूर्खोचित गर्व के साथ
कर लिया है
अमरीका से आयात
कोक, डॉनटस और
पिज्जे की
होम डिलीवरी का शौक,
लेकिन बदनसीब
उनसे ही
नही सीख पाया
साढ़े सात सौ डॉलर
प्रति माह की
सोशल वेलफेयर स्कीम

नही कहूँगा जुमला
(कविताओं के लिए बासी)
कि आज भी
नगरपालिकाओं में बैठे
सुनइया मामा
चट कर जाते हैं
वृद्धा पेंशन के
डेढ़ सौ में से
पचहत्तर रूपए।


बस चुप हूँ मैं
और
कर रहा हूँ महसूस
उस औरत के भीतर घुसे
प्रेत को
जो घुस जाना चाहता है
मुझमें भी
गड़ा कर मेरी गर्दन
पर दाँत

और अब  

फेर ली हैं
मैंने अपनी आँखें

शुक्र है अभी तक
नहीं धुला है इस क़दर
मेरा दिमाग
कि बताने लग जाऊँ
उस औरत को
अपनी पगार
और अपनी खरीदने की
अगाध ताकत

पद्मनाभ
आलो, अरुणाचल प्रदेश
19/09/2012

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