शनिवार, 29 सितंबर 2012

नई कविता - दुःख

जी भर कर
सींच भी नहीं पाया था
आंसुओं से जिसे
बीजने के बाद,
ना जाने कैसे
जी गया है एक दुःख
अपने ही हाथों
सिरजा हुआ

आज अचानक
आ खड़ा हुआ है सामने
शरारत भरी
मुस्कान के साथ,
दरवाजे की
सांकल पकड़े,
एक पैर थपकते
ज़मीन पर,
अनजाने नम्बर से आई
किसी बरसों पुराने
दोस्त की
आवाज़ की तरह

पहचान लिया है
उसने मुझे और
मैंने उसको,
और बस
घुलने लगा है वह
हवा में
अपनी आमद की  तरह
अचानक,
मुझे छू लेने के बाद

बस इतना ही पर्याप्त था जैसे
उसकी तृप्ति के लिए,

न जाने क्यों इन दिनों
हो गई है रातों की नींदें
आसान

हो गई है खत्म
एक लगातार रहने वाली
बेचैनी

अब नहीं भागता हूं
मैं सपनों में बदहवास
बेमकसद
बेतहाशा,

इन दिनों
बहुत गहरी नींद
सोता हूं मैं।


पद्मनाभ गौतम
आलंग, अरूणाचल प्रदेश
20.09.2012

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