कुछ पुरानी पत्रिकाएँ जो अरुणाचल मे मिल पायीं , उनमें प्रकाशित कविताएँ -
पोखरी खदान मे कोयला बीनते मारे गए बच्चे के लिए.
(प्रगतिशील वसुधा-66 जुलाई-सितम्बर 2006)
लड़ रहा था
वह योद्धा
उस पोखरी खदान मे
भूख, समय
और सर पर छतरी बन कर
तने ईश्वर से,
कई लड़ाइयाँ एक साथ
उठा रही थीं हथेलियाँ
एक एक मुट्ठी कोयला,
हर एक खेप मे
खिल खिल जाते थे
कटीली बाड़ के पार खड़े
झुराए धूधुर सने
चेहरों की नन्ही नन्ही
आँखों में गेंहुअन सपनों के फूल,
हरियरा उठते उनके चेहरे
हर खेप के बाद संचय को देख कर,
उन्हें नहीं था इल्म इस बात का
कि उनके सर पर
कभी भी बरप सकता है
ड्रेगलाइन का कहर,
और इसका कि ईश्वर भी फुला रहा है नथुने
उनके इस दुष्कृत्य पर.
ड्रेगलाइन
जो ज़मीन की परतें उखड़ता-उधेड़ता
नाच रहा था शेरनाच,
अपने नाखूनों से मिनटों मे उसेलता
कोयले की परतें,
जमाया था जिसे
कंधे पर ढो ढो कर
पुरखिन नदियों ने
हजारों सालों में
पुरखौती हांडी की तरह
आनेवाली संततियों के लिये,
डोह रहा था जिसे
मुठ्ठियों मे भरकर
उन नदियों का नन्हा वारिस.
अचानक टूट पड़ा
वह गर्वीला दानव
उस दुर्बल काया पर
लेकर हजारों टन मिट्टी का अंबार,
क्षण मे हो गई तहस नहस
उन मलिन चेहरों की दुनिया
मनसबदार चीखे
ट्रेसपासर था, मारा गया
खाकी वर्दी ने कायम किया मर्ग
लेकिन सब इतने बेदर्द नहीं थे
उस वक्त मिट्टी रो रही थी चुपचाप
हवा थपथपा रही थी उसके नन्हें गाल
और ईश्वर ,
वह तो दबे पाँव गायब
हो गया था कभी का,
बगल में दबाये अपनी छतरी
सुआगीत (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
कहाँ से लाती हैं
अपनी आवाज में
इतना दर्द और कंपन
ये सुआ गीत गाती
लड़कियाँ,
सुन कर जिसे ठिठक जाते हैं
राहगीरों के पैर,
काँपते है दरख्त
और
सिहरती है हवाएँ,
गायें चरना छोड़ कर
निहारती हैं गौर से,
बछड़े चुहुकते हैं
पेनहाए थानों को
और अधिक तेजी के साथ,
हरहराकर बहता गेज का पानी
एकाएक जैसे हो जाता है
खामोश
हर आँख खोजने लगती है
आवाज़ की दिशा
उतार जाता है यह
सम्मोहक क्रंदन
कानों से होते
शरीर के रोम रोम में
जब गाती हैं लड़कियाँ
थपका थपका कर तालियाँ
'मोला तिरिया जनम झन देय
मोर सुगना'
ओ सीता माँ
आखिर कितना लंबा चलेगा
बार बार परित्यक्ता होने का
वह अविवेक पूर्ण अभिशाप
जो दिया था तुमने
अपनी ही बेटियों को
होकर कुपित
उनकी किसी लड़िकहुरहुरी पर
क्या तुमने खुद भी
सोचा था इसका दुष्परिणाम
कि आज तक तलाशती हैं
लड़कियाँ
गाकर सुआगीत
अपनी शापमुक्ति का उपाय
कब दूर होगा
यह करुणविलाप
जो बसा हुआ है
वनपुत्रियों के कंठ मे
हज़ारों वर्षों से
शूल की तरह
तुम ही बताओ
कि कब होगा
तुम्हारी अपनी बेटियों का
अहिल्या की तरह उद्धार
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पोखरी खदान मे कोयला बीनते मारे गए बच्चे के लिए.
(प्रगतिशील वसुधा-66 जुलाई-सितम्बर 2006)
लड़ रहा था
वह योद्धा
उस पोखरी खदान मे
भूख, समय
और सर पर छतरी बन कर
तने ईश्वर से,
कई लड़ाइयाँ एक साथ
उठा रही थीं हथेलियाँ
एक एक मुट्ठी कोयला,
हर एक खेप मे
खिल खिल जाते थे
कटीली बाड़ के पार खड़े
झुराए धूधुर सने
चेहरों की नन्ही नन्ही
आँखों में गेंहुअन सपनों के फूल,
हरियरा उठते उनके चेहरे
हर खेप के बाद संचय को देख कर,
उन्हें नहीं था इल्म इस बात का
कि उनके सर पर
कभी भी बरप सकता है
ड्रेगलाइन का कहर,
और इसका कि ईश्वर भी फुला रहा है नथुने
उनके इस दुष्कृत्य पर.
ड्रेगलाइन
जो ज़मीन की परतें उखड़ता-उधेड़ता
नाच रहा था शेरनाच,
अपने नाखूनों से मिनटों मे उसेलता
कोयले की परतें,
जमाया था जिसे
कंधे पर ढो ढो कर
पुरखिन नदियों ने
हजारों सालों में
पुरखौती हांडी की तरह
आनेवाली संततियों के लिये,
डोह रहा था जिसे
मुठ्ठियों मे भरकर
उन नदियों का नन्हा वारिस.
अचानक टूट पड़ा
वह गर्वीला दानव
उस दुर्बल काया पर
लेकर हजारों टन मिट्टी का अंबार,
क्षण मे हो गई तहस नहस
उन मलिन चेहरों की दुनिया
मनसबदार चीखे
ट्रेसपासर था, मारा गया
खाकी वर्दी ने कायम किया मर्ग
लेकिन सब इतने बेदर्द नहीं थे
उस वक्त मिट्टी रो रही थी चुपचाप
हवा थपथपा रही थी उसके नन्हें गाल
और ईश्वर ,
वह तो दबे पाँव गायब
हो गया था कभी का,
बगल में दबाये अपनी छतरी
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**********************************सुआगीत (कृति ओर, जयपुर, अंक 35, जन-मार्च 2005)
कहाँ से लाती हैं
अपनी आवाज में
इतना दर्द और कंपन
ये सुआ गीत गाती
लड़कियाँ,
सुन कर जिसे ठिठक जाते हैं
राहगीरों के पैर,
काँपते है दरख्त
और
सिहरती है हवाएँ,
गायें चरना छोड़ कर
निहारती हैं गौर से,
बछड़े चुहुकते हैं
पेनहाए थानों को
और अधिक तेजी के साथ,
हरहराकर बहता गेज का पानी
एकाएक जैसे हो जाता है
खामोश
हर आँख खोजने लगती है
आवाज़ की दिशा
उतार जाता है यह
सम्मोहक क्रंदन
कानों से होते
शरीर के रोम रोम में
जब गाती हैं लड़कियाँ
थपका थपका कर तालियाँ
'मोला तिरिया जनम झन देय
मोर सुगना'
ओ सीता माँ
आखिर कितना लंबा चलेगा
बार बार परित्यक्ता होने का
वह अविवेक पूर्ण अभिशाप
जो दिया था तुमने
अपनी ही बेटियों को
होकर कुपित
उनकी किसी लड़िकहुरहुरी पर
क्या तुमने खुद भी
सोचा था इसका दुष्परिणाम
कि आज तक तलाशती हैं
लड़कियाँ
गाकर सुआगीत
अपनी शापमुक्ति का उपाय
कब दूर होगा
यह करुणविलाप
जो बसा हुआ है
वनपुत्रियों के कंठ मे
हज़ारों वर्षों से
शूल की तरह
तुम ही बताओ
कि कब होगा
तुम्हारी अपनी बेटियों का
अहिल्या की तरह उद्धार
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