गुरुवार, 5 सितंबर 2013

एक नई कविता....

एक नई कविता....


जहाँ दूर-दूर तक
नज़र आते हैं
लोगों के हुजूम,
माचिस की शीत खाई
तीलियों की तरह, ...
खुशकिस्मत हो
कि अब भी बाकी है
तुम्हारे पास कुछ आंच

बचा कर रखो
उस बहुमूल्य ताप को
जो अब भी बचा हुआ है
तुम्हारे अंदर

वो चाहते हैं
कि चीखो तुम, चिल्लाओ
और हो जाओ पस्त
पहुंच से बाहर खड़ी
बिल्ली पर भौंकते कुत्ते सा

वो चाहते हैं देखना
तुम्हारी आंखों में
थकन और मुर्दनी/
अधमरे आदमी का शिकार है
सबसे अधिक आसान

लक्ष्य नहीं है यात्रा का
जलाना
राह का एक-एक
तिनका

एक दावानल है
प्रतीक्षा में
तुम्हारे अंशदान की,
मत रह जाना
खाली हाथ
उस रोज तुम

तब तक बचा कर रखो
इस आक्रोश को
कलेजे में
राख की पर्तों के नीचे

कहीं शिता न जाए
बेशकीमती आंच यह

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