ग़ज़ल
खिला यूँ ही न गुलमोहर अकेला
कहीं नींदें, कहीं बिस्तर अकेला
कोई रहता है यूँ अक्सर अकेला
नदी पर्वत से कहती है ये हँस कर
यहीं बहते हैं हम, मत डर अकेला
मुझे शक ख़ुद पे ही होने लगा अब
कि खो सकता हूँ मैं बाहर अकेला
ये पटरी है सड़क की तख़्ते-ताऊस
यही कह कर है ख़ुश बेघर अकेला
कगारों तक नदी पर्वत से लाई
झरा ऐसा ही क्या निर्झर अकेला
कई सपने, कई यादों के मौसम
कहा किसने कि है शायर अकेला
ख़िज़ाँ सर पे, दरख़्ते-इश्क़ है यह
खिला यूँ ही न गुलमोहर अकेला
पद्मनाभ, 27/01/2025
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