दूसरी ही मिलेगी। पहली को बचाओ।
लगातार डेढ़ बरस तक ‘रॉक मैकेनिक्स’ की किताबों में सर खपाने के बाद आज़ाद हूँ और आज निकला हूँ आवारगी के लिए, नयी सड़क पर। ऊँ..हूँ! आवारगी वह नहीं , जो आप समझे! आवारगी में मेट्रो से चावड़ी बाजार की जगह चांदनी चौक पहुँच गया, गूगल ज्ञान की दया से। कोई कहता है वापस चावड़ी जाओ। कोई कहता है, सीधे जाओ। खैर! सीधे जाना ठीक है, चांदनी चौक स्टेशन की गर्दी में दोबारा फँसने से।आगे बढ़ते ही गली में मिल गये हैं पण्डित जी। पान बेचते। मन किया तो बनवा लिया। पूछा 'मगही'है, तो कहे ʼनहीं भैया, बनारसी। मगही महँगा पड़ता हैʼ। आश्चर्य तब हुआ, जब दिया जोड़ा पान! चट पूछा ‘पण्डित जी, कहाँ से?’, तो पता चला प्रतापगढ़। अब तो बनारस और इलाहाबाद भी पान जोड़े में नहीं देते! पण्डित जी बोले - 'हम चलाते हैं'। पूछा फोटो खींच लें बनारसी पान का, तो ज़वाब मिला, बिल्कुल! अड़तीस सालों से यहीं बैठते हैं!