बुधवार, 29 जनवरी 2025

दूसरी ही मिलेगी। पहली को बचाओ।


लगातार डेढ़ बरस तक ‘रॉक मैकेनिक्स’ की किताबों में सर खपाने के बाद आज़ाद हूँ और आज निकला हूँ आवारगी के लिए, नयी सड़क पर। ऊँ..हूँ! आवारगी वह नहीं , जो आप समझे! आवारगी में मेट्रो से चावड़ी बाजार की जगह चांदनी चौक पहुँच गया, गूगल ज्ञान की दया से। कोई कहता है वापस चावड़ी जाओ। कोई कहता है, सीधे जाओ। खैर! सीधे जाना ठीक है, चांदनी चौक स्टेशन की गर्दी में दोबारा फँसने से।आगे बढ़ते ही गली में मिल गये हैं पण्डित जी। पान बेचते। मन किया तो बनवा लिया। पूछा 'मगही'है, तो कहे ʼनहीं भैया, बनारसी। मगही महँगा पड़ता हैʼ। आश्चर्य तब हुआ, जब दिया जोड़ा पान! चट पूछा ‘पण्डित जी, कहाँ से?’, तो पता चला प्रतापगढ़। अब तो बनारस और इलाहाबाद भी पान जोड़े में नहीं देते! पण्डित जी बोले - 'हम चलाते हैं'। पूछा फोटो खींच लें बनारसी पान का, तो ज़वाब मिला, बिल्कुल! अड़तीस सालों से यहीं बैठते हैं!

ख़ैर, पान खाकर आगे बढ़े तो ‘नई सड़क’ पास ही मिल गयी। तिल धरने को भी जगह नहीं। उँगलियों के पोरों को अब तांगे नहीं, ई-रिक्शा चींथते हैं और कोई नहीं लगाता हाँक - 'हट जा जीणे जोगिये'। सुनने वाले 'गुलेरी' भी अब कहाँ रहे। यहाँ से श्वेता जी के लिए बीस साल पहले महँगी साड़ी खरीदी थी, आठ सौ की! वो न उम्र में आगे बढ़ती हैं, न साड़ियों की कीमत में। आज भी वहीं टिकी हुई हैं। दोनों ही में मेरा फ़ायदा है।
बहरहाल, ‘नई सड़क’ पर वो नहीं मिली जो चाहिए। किसी ने कहा ‘महिला हाट’ जाओ। वाया अज़मेरी गेट। दो किलोमीटर तो बहुत दूर है! जिसे खोजता हूँ , वह महिला हाट में मिलेगी। अब उसने अपना पता बदल लिया है। दरियागंज से चली गयी है, कुछ आगे। भले ई-रिक्शा वाले ने कहा उसके कुछ करीब छोड़ देगा, अज़मेरी गेट छोड़ कर। रुपये उतने ही मांगे पर बख़्शीश तो बनती है। रिक्शा वाला गूगल-पे नहीं चलाता और मेरे पास छुट्टा नहीं है। आस-पास कोई छुट्टा देने वाला भी नहीं है। लो अब कर लो बात!
‘डिलाइट’ के सामने है महिला हाट। अब रास्ता खाली है। ‘डिलाइट’ में लगी है भूल-भुलैया - 3 और ग्लेडियेटर -2। दूसरी के दो शो हैं, प्राइम और पहली का केवल एक, सुबह का।
अचानक ही लगा, महिला हाट में शायद ही वो मिले।दूसरी ही मिलेगी। पहली को बचाओ।
पुनश्च- उम्मीद की किरन बाक़ी है। बहुत में इकलौती, अंतिम पंक्ति में पार्क के पीछे के चबूतरे के बगल की दुकान। विनोद कुमार शुक्ल और मज़ाज वहीं पर मिलेंगे पास-पास।

भगदड़  

क्या वह आदमी

जिसने खोया है

मक्के की भगदड़ में
अपनी माँ को
हँस सकेगा
महाकुम्भ की भगदड़ में
मरते लोगों पर
या वह, जिसने खोया है
अपना बेटा
महाकुम्भ की भगदड़ में
अब कभी हँसेगा
हज में मची भगदड़ पर
हज और महाकुम्भ में
भगदड़ के बाद
लाशें थीं एक समान मुद्राओं में
चेहरों पर अंतिम भाव
बदहवासी, भय और हताशा के
जब मचती है भगदड़
तब मरता नहीं है धर्म
मरती नहीं है कोई किताब
मरता है तो बस एक आदमी
वह अब किसी धर्म का अनुयायी नहीं
पर अब भी होता है
किसी का पिता
किसी का भाई
किसी की माँ, बहन, बेटी
किसी का आसरा
किसी की उम्मीद
मुझे नहीं पता कि
धर्मस्थलों में मरकर,
वह भी भगदड़ की
अकाल मृत्यु में,
मिलता होगा कैसा स्वर्ग
पर मैं बखूबी जानता हूँ
पिता को अकालमृत्यु में
खो देने पर
मिलने वाले नर्क को।
30/01/2025

सोमवार, 27 जनवरी 2025

ग़ज़ल


खिला यूँ ही न गुलमोहर अकेला



कहीं नींदें, कहीं बिस्तर अकेला

कोई रहता है यूँ अक्सर अकेला


नदी पर्वत से कहती है ये हँस कर

यहीं बहते हैं हम, मत डर अकेला


मुझे शक ख़ुद पे ही होने लगा अब

कि खो सकता हूँ मैं बाहर अकेला 


ये पटरी है सड़क की तख़्ते-ताऊस 

यही कह कर है ख़ुश बेघर अकेला


कगारों तक नदी पर्वत से लाई

झरा ऐसा ही क्या निर्झर अकेला


कई सपने, कई यादों के मौसम

कहा किसने कि है शायर अकेला


ख़िज़ाँ सर पे, दरख़्ते-इश्क़ है यह

खिला यूँ ही न गुलमोहर अकेला


पद्मनाभ, 27/01/2025




बुधवार, 22 जनवरी 2025


ये मुल्क है शोर पर फ़िदा








किसी की आँखों पर फ़िदा, किसी के तौर पर फ़िदा
किसी लिबास पर फ़िदा, किसी के ज़ोर पर फ़िदा
समझने-सोचने से कर के बैठा तर्क-ए-ताल्लुक
ये मुल्क शोर चाहता है , बस है शोर पर फ़िदा

ज़ोर - ताक़त, तर्क-ए-ताल्लुक - सम्बन्ध विच्छेद
22-01-2025 

सोमवार, 20 जनवरी 2025

बेटे पर दो कविताएँ 

 बेटा-1

छुटपन से लेकर
किशोरावस्था तक
ऐसा कोई दिन नहीं हुआ
जब राह चलते
उसके पाँव न टकराए हों
मेरे पाँवों से    
 
कभी-कभी
मेरी झिड़की भी -
ज़रा दूरी बनाकर चलो ना!’
 
अब जब चलने लगा है
सम्हल कर दूर-दूर,
मैं अक्सर देखता हूँ
पाँवों के बीच की
बढ़ी हुई दूरियों को
कई-कई बारI
 
बेटा-2
 
गलत दिशा से
आते हैं ज़ल्दियाए
डिलीवरी वाले लड़के
पर मुझे आदत है
केवल सही दिशा से
आती गाड़ियों को
देखने की
 
एक तो लगभग
चढ़ा ही देता है
मोटर-साइकिल
मेरे पैर पर 
 
पारा चढ़ने को है
कि बेटे ने कर दिया
रफ़ा-दफ़ा
सफ़ाई देते लड़के को
 
'देखते नहीं,
गलत आ रहा'
गरज़ रहा हूँ मैं
 
'रहने दीजिए,
दोनों तरफ़ देखने की
आदत डाल लीजिए,
ये दिल्ली है,
समझाता है मुझको
मुस्कुराते हुए!
 
बेटा बड़ा हो गया है
 
शायद लौट रहे
मेरे दोबारा
बच्चा होने के दिनI  

पद्मनाभ , २०-०१-२०२५

   

एक नगर, चार शायर, तरही ग़ज़लें

एक नगर, चार शायर, तरही ग़ज़लें       शहर की साहित्य सभा 'कोरिया रचना साहित्य मंच' के व्हाट्सअप ग्रुप में आज कल फ़िल-बदीह का आरम्भ हुआ...