मंगलवार, 18 फ़रवरी 2025

एक समकालीन ग़ज़ल

 आज एक समकालीन ग़ज़ल -

ये मौसमों के बीच में मौसम नए-नए
हैरान कर रहे हैं मरासम नए-नए
दौरे-ख़िज़ाँ है, मौसमे-गुल भी है साथ में
किस्सा-ए-मुहब्बत में पेंच-ओ-ख़म नए-नए
कुछ उनकी इनायत है, कुछ हम भी बावफ़ा
ऐसे ही क्या मिले हैं रंजो-ग़म नए-नए
दुनिया का आदमी हूँ या बाहर की कोई शै
होने लगे हैं मुझको भी वहम नए-नए
हर बात पे मुक़ाबिल, हर बात पे नाराज़
ये मेरे शहरयार हैं, रुस्तम नए-नए
चलने में साथ ठोकरें, उलझन, ये हड़बड़ी
लाज़िम है मुश्किलें ओ हमकदम नए-नए
मौसम गुलों का पीली ये सरसों नई दुल्हन
इतरा रहा पलाश ज्यों बलम नए-नए
मरासम/मरासिम - ताल्लुक, दौरे ख़िज़ाँ - पतझड़, मौसमे-गुल - वसंत ॠतु, पेंच-ओ-ख़म - जटिलताएँ, मुक़ाबिल - सामने खड़ा, शहरयार - अधिकारी/मेयर, रुस्तम - ताकतवर, वीर

सोमवार, 3 फ़रवरी 2025

आज यह ग़ज़ल आप गुणीजनों के सामने -

 आज यह ग़ज़ल आप गुणीजनों के सामने -

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भीत पर मन की ये बिरवे जड़ जमाए जा रहे
मन के आँगन ढीठ कुछ छतनार छाए जा रहे
है नई शतरंज, राजा ढाई घर, इक घर वज़ीर
ऊँट सीधे, फ़ील अब तिरछे बढ़ाए जा रहे
रात पूरी गाए मालिन, बीत जब अवसर चुके
राग सच में भोर के दुपहर सुनाए जा रहे
आ गए जंगल शहर, थक-हार कर प्रतिरोध में
युद्ध का 'हाका' किए संसद हिलाए जा रहे
यक्ष जैसे स्वप्न पूछें प्रश्न, व्याकुल सब यहाँ
लोग स्वप्नों को ही निद्रा में सुलाए जा रहे
दीप कच्ची मिट्टियों के, और यह उथली नदी
आस दीपक हैं प्रवाहित, या सिराए जा रहे?
द्वीप डूबे, अश्रुओं के ज्वार में, पर दुधमुहे
जीभ युद्धों को चिढ़ाते खिलखिलाए जा रहे
धूप सुलगी, अगन लहकी, बारिशें दूभर, मगर
ज़िद है, यह बनफूल जंगल को हँसाए जा रहे
इक उदासी का है जंगल, एक धूमिल आसमाँ
दूर से आती कोई धुन, हम भी गाए जा रहे
भीत - दीवार,
छतनार - छाते/छत की तरह फैलने वाला वृक्ष,
फ़ील - हाथी
'हाका' - न्यू-ज़ीलैंड की संसद में मूल निवासी युवा सांसद 'राना रौहिती' का युद्ध-घोष - 'माओरी हाका'
"रात पूरी गाए मालिन, बीत जब अवसर चुके" - बघेली बोली की एक लोकोक्ति से उद्धृत"
सिराना - विसर्जित करना

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